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२८ 0 धर्म के दशलक्षण
इसीप्रकार का कोई न कोई यशादि का लोभ व अपयश आदि का भय अथवा पुण्य की रुचि और पाप की अरुचि ही उनकी शान्ति का प्राधार रहती है या फिर शास्त्रों में लिखा है कि मनिराज को क्रोध नहीं करना चाहिए, शान्त रहना चाहिए - आदि किसी न किसी बाह्य प्राधार को पकड़ कर ही शान्त रहते हैं, उनकी शान्ति का प्राधार प्रात्मा नहीं बनता है।
तथा कोई ज्ञानी चारित्रमोह के दोष से बाहर में क्रोध करता भी दिखाई दे, फिर भी उत्तमक्षमा का धारक हो सकता है। जैसेआचार्यमहाराज मुनिराज को डांटते भी दिखाई दें, उन्हें दण्ड भी दे रहे हों, उत्तेजित भी दिखाई दे रहे हों; फिर भी वे उत्तमक्षमा के धारक हैं- क्योंकि उनके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध का प्रभाव है, आत्मा का आश्रय विद्यमान है। अणुव्रती या अविरतसम्यग्दष्टि गहस्थ तो और भी अधिक बाह्य में क्रोध करता दिखाई दे सकता है। अवती परन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टि भरतचक्रवर्ती बाहुबली पर चक्र चलाते समय भी अनन्तानुबन्धी के क्रोधी नहीं थे । ____ अतः उत्तमक्षमा का निर्णय बाह्य प्रवृत्ति के आधार पर नहीं किया जा सकता।
अनन्तानुबंधी क्रोध के प्रभाव से उत्तमक्षमा प्रकट होती है और अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान क्रोध का प्रभाव उत्तमक्षमा को पल्लवित करता है तथा संज्वलन क्रोध का अभाव उत्तमक्षमा को पूर्णता प्रदान करता है।
_अनन्त संसार का अनुबन्ध करने वाला अनन्तानबंधी क्रोध प्रात्मा के प्रति अरुचि का नाम है। ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा की अरुचि ही अनन्तानुबंधी क्रोध है ।
जब हमें किसी व्यक्ति के प्रति अनन्त क्रोध होता है तो हम उसकी शकल भी देखना पसंद नहीं करते, उसकी बात करनासुनना पसंद नहीं करते। कोई तीसरा व्यक्ति उसकी चर्चा हमसे करे तो हमें वह भी बर्दाश्त नहीं होती, उसकी प्रशंसा सुनना तो बहुत दूर की बात है।
इसीप्रकार जिन्हें प्रात्मदर्शन की रुचि नहीं है, जिन्हें आत्मा की बात करना-सुनना पसंद नहीं है, जिन्हें आत्मचर्चा ही नहीं, आत्मचर्चा करने वाले भी नहीं सुहाते; वे सब अनन्तानुबंधी के क्रोधी हैं क्योंकि