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उत्तमक्षमा २७
शास्त्रों में क्रोध चार प्रकार का कहा गया है । ( १ ) अनन्तानुबन्धी (२) अप्रत्याख्यान ( ३ ) प्रत्याख्यान, और ( ४ ) संज्वलन | चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी क्रोध का प्रभाव हो गया है, अतः उसे तत्सम्बन्धी उत्तम क्षमाभाव प्रकट हो गया है। पंचम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती के अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानसम्बन्धी क्रोध के प्रभावजन्य उत्तमक्षमा विद्यमान है तथा छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती महाव्रती मुनिराजों के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान सम्बन्धी क्रोध का प्रभाव होने से वे तीनों के प्रभाव संबंधी उत्तमक्षमा के धारक हैं। नौवें दसवें गुरणस्थान से ऊपर वाले तो पूर्ण उत्तमक्षमा के धारक हैं ।
उक्त कथन शास्त्रीय भाषा में हुआ, अतः शास्त्रों के अभ्यासी कि उत्तमक्षमा आदि
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ही समझ पाएँगे । इस सब का तात्पर्य यह है का नाप बाहर से नहीं किया जा सकता है और तीव्रता पर उत्तमक्षमा आधारित नहीं है, उक्त कषायों का क्रमशः अभाव है । कषायों की मंदता - तीव्रता के आधार पर जो भेद पड़ता है वह तो लेश्या है ।
कषायों की मंदता उसका आधार तो
यद्यपि व्यवहार से मंदकषाय वाले को भी उत्तमक्षमादि का धारण करने वाला कहा जाता है, पर अन्तर की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा भी हो सकता है कि वह बाहर से तो बिल्कुल शान्त दिखाई दे किन्तु अन्तर में अनंत क्रोधी हो अर्थात् प्रनन्तानुबन्धी का कांगी हो । नववें ग्रैवेयक तक पहुँचने वाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि बाहर से इतने शान्त दिखाई देते हैं कि उनकी खाल खींचकर नमक छिड़के तब भी उनकी आँख की कोर लाल न हो, फिर भी शास्त्रकारों ने कहा है कि वे उनमक्षमा के धारक नहीं हैं, अनन्तानुबन्धी के क्रोधी हैं, क्योंकि उनके ग्रन्तर से प्रात्मा की अरुचिरूपी क्रोध का प्रभाव नहीं हुआ है । बाह्य में जो क्रोध का प्रभाव दिखाई देता है उसका कारण आत्मा के आश्रय से उत्पन्न शान्ति नहीं है, वरन् जिस चिन्तन के आधार पर वे शान्त रहे हैं, वह पराश्रित ही रहता है । जैसे - वे सोचते हैं कि यदि मैं साधु हुआ हूँ तो मुझे शान्त रहना ही चाहिए । यदि शान्त नहीं रहूँगा तो लोग क्या कहेंगे ? इस भव में मेरी बदनामी होगी और पाप का बंध होगा तो अगला भव भी बिगड़ जायगा । यदि शान्त रहूँगा तो अभी प्रशंसा होगी और पुण्यबंध होगा तो आगे भी सुख की प्राप्ति होगी ।