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उत्तममादव
क्षमा के समान मार्दव भी आत्मा का स्वभाव है। मार्दवस्वभावी मात्मा के प्राश्रय से आत्मा में जो मान के अभावरूप शान्ति-स्वरूप पर्याय प्रकट होती है, उसे भी मार्दव कहते हैं। यद्यपि प्रात्मा मार्दवस्वभावी है तथापि अनादि से प्रात्मा में मार्दव के अभावरूप मानकषायरूप पर्याय ही प्रकटरूप से विद्यमान है।
'मदोर्भावः मार्दवम्' मदुता-कोमलता का नाम मार्दव है। मान कषाय के कारण प्रात्मस्वभाव में विद्यमान कोमलता का अभाव हो जाता है। उसमें एक अकड़-सी उत्पन्न हो जाती है। मानकषाय के कारण मानी अपने को बड़ा और दूसरों को छोटा मानने लगता है। उसमें समुचित विनय का भी प्रभाव हो जाता है। मानी जीव हमेशा अपने को ऊंचा और दूसरों को नीचा करने का प्रयत्न किया करता है। मान के खातिर वह क्या नही करता? छल-कपट करता है, मान भंग होने पर क्रोधित हो उठता है। सम्मान प्राप्ति के लिए सब कुछ करने को तैयार रहता है। यहाँ तक कि जिन धनादि पदार्थों का संग्रह मौत की कीमत पर करता है, उन्हें भी पानी की तरह बहाने को तैयार हो जाता है। घर-बार, स्त्री-पुत्रादि सब कुछ छोड़ देने पर भी मान नहीं छूटता। अच्छे-अच्छे तथाकथित महात्माओं को आसन की ऊंचाई के लिए झगड़ते देखा जा सकता है, नमस्कार न करने पर उखड़ते देखा जा सकता है । यह सब मान कषाय की ही विचित्र महिमा है।
मानी जीव की प्रवत्ति का चित्रण महापंडित टोडरमलजी ने इसप्रकार किया है :
"जब इसके मानकषाय उत्पन्न होती है तब औरों को नीचा व अपने को ऊँचा दिखाने की इच्छा होती है और उसके अर्थ अनेक उपाय सोचता है । अन्य की निंदा करता है, अपनी प्रशंसा करता है व अनेक प्रकार से औरों की महिमा मिटाता है, अपनी महिमा करता है। महाकष्ट से जो धनादिक का संग्रह किया उसे विवाहादि कार्यों में खर्च करता है तथा कर्ज लेकर भी खर्चता है। मरने के बाद हमारा यश रहेगा ऐसा विचारकर अपना मरण करके भी अपनी महिमा बढ़ाता है। यदि कोई अपना सम्मानाटिक न करे तो उसे भयादिक