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१७६ 0 धर्म के बशलक्षण
कुछ दिन पूर्व एक चित्र-प्रतियोगिता हुई थी, जिसमें क्षमावाणी को चित्र के माध्यम से प्रस्तुत करना था। सर्वोत्तम चित्र के लिये प्रथम पुरस्कार प्राप्त चित्र का जब प्रदर्शन किया गया तब चित्रकार के साथ-साथ निर्णायकों की समझ पर भी तरस आये विना न रहा।
__ 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' के प्रतीक्रूप में दिखाए गये चित्र में एक पौराणिक महापुरुष द्वारा एक अपराधी का वध चित्रित था। उसका जो स्पष्टीकरण किया जा रहा था, उसका भाव कुछ इस प्रकार था :
"उक्त महापुरुप ने अपराधी के सौ अपराध क्षमा कर दिये, पर जव उसने एक मौ एकवां अपराध किया तो उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।"
क्षमा के चित्रण में हत्या के प्रदर्शन का औचित्य सिद्ध करते हुए कहा जा रहा था :
"यदि वे एक सौ एकवें अपराध के बाद भी उमको नहीं मारते तो फिर वे कायर समझे जाते । कायर की क्षमा कोई क्षमा नहीं है; क्योंकि क्षमा नो वीर का भूषण है।
मौ अपगधों को क्षमा करने से तो क्षमा सिद्ध हुई और मार डालने से वीरता । इसप्रकार यह 'क्षमा वीरस्य भूषणम् का मर्वोत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण है ! यही कारण है कि इन्हें क्षमावागगो के अवमर पर तदर्थ प्रथम पुरस्कार दिया जा रहा है।"
अमा के साथ हिमा की संगति ही नहीं, औचित्य सिद्ध करने वालों से मुझे कुछ नहीं कहना है । मैं नो मात्र यह कहना चाहता हूं कि इम पौरागिक पाख्यान को क्षमा का रूपक देने वालों ने इस तथ्य की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया कि उनकी क्षमा क्रोधादि कषायों के ग्रभावरूप परिगति का परिणाम नहीं थी, वरन् वे सौ अपगधों को क्षमा करने के लिये वचनबद्ध थे। उनकी वचनपालन की दृढ़ता और तत्सम्बन्धी धैर्य तो प्रशंसनीय हैं, परन्तु उसे उत्तमक्षमा का प्रतीक कैसे माना जा सकता है ?
दूसरी बात यह भी तो है कि क्या सच्चे क्षमाधारक की दृष्टि में कोई दूसरा भी अपराध हो सकता है ? जब उसने प्रथम अपराध क्षमा ही कर दिया, तब अगला अपराध दूसरा कैसे कहा जा सकता है ? यदि उसे दूसग कहें तो पहले को वह भूला कहाँ ? जब प्रथम