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समावारणी १७७ अपराध को क्षमा करने के बाद भी उसे भूल नहीं पाया तो फिर क्षमा ही क्या किया ?
वस्तुतः बात यह है कि हमारी परिणति तो क्रोधादिमय हो रही है और शास्त्रों में क्षमादि को अच्छा कहा है; अतः हम शास्त्रानुसार अच्छा बनने के लिए नहीं, वरन् अच्छा दिखने के लिए किसी क्रोध के रूप को ही क्षमा का नाम देकर क्षमाधारी बनना चाहते हैं ।
क्षमाभाव का सर्वोत्कृष्ट चित्रण तोअरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-काँच, निंदन-थति करन ।
अर्घावतारन - प्रसिप्रहारन में सदा समता धरन ।' ऐसी स्थिति को प्राप्त समताधारी मुनिराज का चित्रण ही हो सकता है।
क्षमा कायरता नहीं, क्षमा धारण करना कायरों का काम भी नहीं; पर वीरता भी तो मात्र दूसरों को मारने का नाम नहीं है, दूसरों को जीतने का नाम भी नहीं। अपनी वासनाओं को, कषायों को मारना; विकारों को जीतना ही वास्तविक वीरता है। युद्ध के मैदान में दूसरों को जीतने वाले, मारने वाले युद्धवीर हो सकते हैं; धर्मवीर नहीं । धर्मवीर ही क्षमाधारक हो सकता है; युद्धवीर नहीं।
वीरता के क्षेत्र को भी हमने संकुचित कर दिया । अब वीरता हमें युद्धों में ही दिखाई देती है; शांति के क्षेत्र में भी वीरता प्रस्फुटित हो सकती है, यह हमारी समझ में ही नहीं आता। यही कारण है कि हमें 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' को स्पष्ट करने के लिए हत्या दिखाना अावश्यक लगता है। हत्या दिखाये विना वीरता का प्रस्तुतीकरण हमें संभव ही नहीं लगता।
जिस महापुरुष की लेखनी से यह महावाक्य प्रस्फुटित हुआ होगा, उसने सोचा भी न होगा कि इसकी ऐसी भी व्याख्या की जावेगी। एक हत्या भी क्षमा का एवं वीरता का प्रतीक बन जावेगी।
एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिन दशधर्मों की अाराधना के बाद यह क्षमावाणी महापर्व आता है, उनकी चचा प्राचार्य उमास्वामी ने मूनिधर्म के प्रसंग में की है। दशधर्मों की आराधना का समग्र प्रतिफलन जिस क्षमावाणी में प्रस्फुटित होता है, 'पं० दाल : बहढाला, छठवीं ढाल, छन्द ६
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