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क्षमावाणी १७५
(Independent) क्रिया है । क्षमावारणी एक धार्मिक परिणति है, प्राघ्यात्मिक क्रिया है । उसमें पर के सहयोग एवं स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती । यदि हम क्षमाभाव धारण करना चाहते हैं, तो उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि जब कोई हमसे क्षमायाचना करे, तब ही हम क्षमा कर सकें अर्थात् क्षमा धारण कर सकें । अपराधी द्वारा क्षमायाचना नहीं किये जाने पर भी उसे क्षमा किया जा सकता है । यदि ऐसा नहीं होता तो फिर क्षमा धारण करना भी पराधीन हो जाता। यदि किसी ने हमसे क्षमायाचना नहीं की, तो उसने स्वयं की मानकषाय का त्याग नहीं किया और यदि हमने उसके द्वारा क्षमायाचना किए बिना ही क्षमा कर दिया तो हमने अपने क्रोधभाव का त्याग कर उसका नहीं, अपना ही भला किया है ।
इसीप्रकार हमारे द्वारा क्षमायाचना करने पर भी यदि कोई क्षमा नहीं करता है, तो क्रोध का त्याग नहीं करने से उसका ही बुरा होगा । हमने तो क्षमायाचना द्वारा मान का त्याग कर, अपने में मार्दवधर्म प्रकट कर ही लिया । उसके द्वारा क्षमा नहीं करने से, क्षमा माँगने से होने वाले लाभ से हम वंचित नहीं रह सकते ।
यही कारण है कि प्राचार्यों ने अन्य जीवों द्वारा क्षमायाचना की प्रतीक्षा किए बिना ही सब जीवों को अपनी प्रोर से क्षमा करके तथा 'कोई क्षमा करेगा या नहीं' - इस विकल्प के बिना ही सबसे क्षमायाचना करके अपने अन्तःस्थल में उत्तमक्षमामार्दवादि धर्मों को धारण कर लिया ।
कोई जीव हमसे क्षमा मांगे, चाहे नहीं; हमें क्षमा करे, चाहे नहीं; हम तो अपनी ओर से सबको क्षमा करते हैं और सबसे क्षमा मांगते हैं - इस प्रकार हम तो अब किसी के शत्रु नहीं रहे और न हमारी दृष्टि में कोई हमारा शत्रु रहा है जगत हमें शत्रु मानो तो मानो, जानो तो जानो; हमें इससे क्या ? और हमारा दूसरे की मान्यता पर अधिकार भी क्या है ?
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हम तो अपनी मान्यता सुधार कर अपने में जाते हैं, जगत की जगत जाने - ऐसी वीतराग परिणति का नाम ही सच्चे अर्थों में क्षमावाणी है ।
क्षमावाणी का सही स्वरूप नहीं समझ पाने के कारण उसके प्रस्तुतीकरण में भी अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हैं ।