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१७४ धर्म के दशलक्षरण
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वर्ष में तीन बार क्षमावारणी प्राने का भी कारण है । और वह यह कि प्रत्याख्यान कषाय छ: माह से अधिक नहीं रहती । यदि अधिक रहे तो समझना चाहिए कि वह अनन्तानुबंधी है । अनन्तानुबंधी कषाय अनंत संसार का कारण है । अतः यदि क्षमावाणी छः माह के भीतर ही हो जावे और उसके निमित्त से हम छः माह के भीतर ही क्रोधमानादि कषायभावों को धो डालें तो बहुत अच्छा रहे ।
बैरभाव तो एक दिन भी रखने की वस्तु नहीं है । प्रथम तो बैरभाव धारण ही नहीं करना चाहिए । यदि कदाचित् हो भी जावे तो उसे तत्काल मिटा देना चाहिए। इसके बाद भी यदि रह जाय तो फिर क्षमावाणी के दिन तो मन साफ हो ही जाना चाहिए ।
इसमें एक बात और भी विचारणीय है । वह यह कि इसे हमने मनुष्यों तक ही सीमित कर रखा है, जबकि प्राचार्यों ने इसे जीवमात्र तक विस्तार दिया है |
वे यह नहीं लिखते :
'खामेमि सव्व जैनी, सव्वे जैनी खमन्तु मे ।'
'खामेमि सव्व मनुजा, बल्कि यह लिखते हैं
-:
या
सव्वे 'मनुजा खमन्तु मे ।'
'खामेमि सव्व जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे ।'
वे सब जैनियों या सर्व मनुष्यों मात्र से क्षमा मांगने या क्षमा करने की बात न करके सब जीवों को क्षमा करने और सब जीवों से क्षमा मांगने की बात करते हैं । इसीप्रकार वे मात्र जैनियों या मनुष्यों से मित्रता नहीं चाहते, किन्तु प्राणीमात्र से मित्रता की कामना करते हैं । उनका दृष्टिकोरण संकुचित नहीं, विशाल है ।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब कोई जीव हमसे क्षमा मांगे ही नहीं, तो हम उसे कैसे क्षमा करें ? तथा हम उससे क्या क्षमा मांगें, जो हमारी बात समझ ही नहीं सकता । जो हमारी बात समझ ही नहीं सकता, वह हमें क्या क्षमा करेगा, कैसे क्षमा करेगा ? इस प्रकार एकेन्द्रियादि जीवों से क्षमा मांगना और उन्हें क्षमा करना कैसे संभव है ?
क्षमायाचना या क्षमाकरना दो प्राणियों की सम्मिलित (Combined) क्रिया नहीं है, यह एकदम व्यक्तिगत चीज है, स्वाधीन