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क्षमावाखी 0 १७३
अब रह जाती है मात्र यह बात कि फिर इसका नाम अकेली क्षमा पर ही क्यों रखा गया है ? सो इसका समाधान यह है कि क्या इतना बड़ा नाम रखने का प्रयोग सफल होता? क्या इतना बड़ा नाम सहज ही सब की जबान पर चढ़ सकता था? नहीं, बिल्कुल नही।
अत: जिसप्रकार अनेक भाइयों या भागीदारों का बराबर भाग रहने पर भी फर्म या कम्पनी का नाम प्रथम भाई के नाम पर रख दिया जाता है, एक भाई का नाम रहने पर भी सबके स्वामित्व में कोई अंतर नहीं पड़ता; उसीप्रकार क्षमा का नाम रहने पर क्षमावाणी में दशों धर्म समा जाते हैं।
यहाँ एक प्रश्न यह भी संभव है कि जिसके नाम की दुकान होगी, सामान्य लोग तो यही समझेंगे कि दुकान उसी की है।
यह बात ठीक है, स्थूलबुद्धि वालों को ऐमा भ्रम प्रायः हो जाता है; पर समझदार लोग सब सही ही समझते हैं । इसीकारण तो क्षमावाणी को स्थूलबुद्धि वाले मात्र क्षमावाणी ही समझ लेते हैं, क्षमादिवाणी नहीं समझ पाते । पर जब समझदार लोग समझाते है तो सामान्य लोगों की भी समझ में प्राजाता है। इसीलिए तो इतना स्पष्टीकरण किया जा रहा है। यदि इस भ्रम की संभावना नही होती तो फिर इतने स्पष्टीकरण की आवश्यकता क्यों रहती?
दनियाँदारी में तो आज का आदमी बहत चतुर हो गया है। क्या देश में जितने भी मिल, दुकाने गांधीजी के नाम पर है, उन सबके मालिक गांधीजी हैं ? नहीं, बिल्कुल नहीं, और यह बात सब अच्छी तरह समझते भी हैं। पर न मालूम प्राध्यात्मिक मामलों में इसप्रकार के भ्रमों में क्यों उलझ जाते हैं ? वस्तुतः बात तो यह है कि प्राध्यात्मिक मामलों में कोई भी व्यक्ति दिमाग पर वजन ही नहीं डालना चाहता। गहराई से सोचना ही नहीं है तो समझ में कैसे प्रावे? यदि सामान्य व्यक्ति भी थोड़ा-सा भी गहराई से विचार करे तो सब समझ में आ सकता है।
दशलक्षण महापर्व के समान क्षमावागी उत्सव भी वर्ष में तीन बार मनाया जाना चाहिए; पर जब दशलक्षगापर्व भी तीन बार नहीं मनाया जाता है तो फिर इसे कौन मनावे ? अस्तु जो भी हो, पर वर्ष में एक बार तो हम इसे बड़े उत्साह से मनाते ही हैं। इस कारण भी इसका महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि मनोमालिन्य और बैरभाव घोने-मिटाने का अवसर एक बार ही प्राप्त होता है ।