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उत्तमब्रह्मवयं 0 १६५ प्रात्मा के अनुभव बिना तो सम्यग्दर्शन भी नहीं होता, व्रत तो सम्यग्दर्शन के बाद होते हैं। स्वस्त्री का संग तो छठवीं प्रतिमा तक रहता है, सातवी प्रतिमा में स्वस्त्री का साथ छूटता है। अर्थात् स्त्रीसेवन के त्याग के पहले प्रात्मा का अनुभवरूप ब्रह्मचर्य होता है, पर उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं है।
यहां सम्यग्दर्शन के बिना भी बाह्य ब्रह्मचर्य का निषेध नहीं है, वह निवृत्ति के लिये उपयोगी भी है। गृहस्थ संबंधी झंझटों के न होने से शास्त्रों के अध्ययन-मनन-चिन्तन के लिये पूरा-पूरा अवमर मिलता है। पर वाह्य ब्रह्मचर्य लेकर स्वाध्यायादि में न लगकर मानादि पोषण में लगे तो उसने बाह्य ब्रह्मचर्य भी नहीं लिया, मान लिया है, सम्मान लिया है।
ब्रह्मचर्य की चर्चा करते समय दशलक्षण पूजन में एक पंक्ति पाती है :
'संसार में विष-बेल नारी, नज गये योगीश्वरा।'
आजकल जब भी ब्रह्मचर्य की चर्चा चलती है तो दशलक्षगग पूजन की उक्त पंक्ति पर बहुत नाक-भौं सिकोड़ी जाती है । कहा जाता है कि इसमें नारियों की निन्दा की गई है। यदि नारी विष की बेल है तो क्या नर अमृत का वृक्ष है ? नर भी तो विप-वृक्ष है।
यहाँ तक कहा जाता है कि पूजाएँ पुरुषों ने लिखी हैं, अतः उसमें नारियों के लिए निन्दनीय शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
तो क्या नारियाँ भी एक पूजन लिखें और उसमें लिखदें कि :___ 'संसार में विष-वृक्ष नर, सब तज गईं योगीश्वरी।'
भाई, ब्रह्मचर्य जैसे पावन विषय को नर-नारी के विवाद का विषय क्यों बनाते हो? ब्रह्मचर्य की चर्चा में पूजनकार का प्राशय नारी-निन्दा नहीं है। पुरुषों को श्रेष्ठ बताना भी पूजनकार को इष्ट नहीं है । इसमें पुरुषों के गीत नहीं गाये हैं, वरन् उन्हें कुशील के विरुद्ध डाँटा है, फटकाग है।
नारी शब्द में तो सभी नारियां आ जाती हैं। जिनमें माना, वहिन, पुत्री आदि भी शामिल हैं । तो क्या नारी को विष-बेल कहकर माता, बहिन और पुत्री को विष-बेल कहा गया है ?
नहीं, कदापि नहीं।