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१६४ 0 धर्म के बालक्षण वे तुम्हें ब्रह्मचर्य से रहने से तो रोक नहीं सकते; तुम ब्रह्मचर्य से रहो न, तुम्हें क्या परेशानी है ? तुम्हें ब्रह्मचर्य से रहने से तो कोई रोक नहीं सकता।" ___ इसके बाद भी उसे सन्तोष नहीं हुआ तो उससे कहा गया कि "अभी रहने दो, अभी छह मास अभ्यास करो। बाद में तुम्हें ब्रह्मचर्य दिला देंगे, जल्दी क्या है ?"
तब वह एकदम बोला- "ऐसा अवसर फिर कब मिलेगा ?"
"कैसा अवसर"- यह पूछने पर कहने लगा-"यह पंचकल्याणक मेला बार-बार थोड़े ही होगा।"
अब आप ही बताइये कि उसे ब्रह्मचर्य चाहिये, कि पचास हजार जनता के बीच ब्रह्मचर्य चाहिये । उसे ब्रह्मचर्य से नहीं, ब्रह्मचर्य की घोषणा से मतलब था। उसे ब्रह्मचर्य नहीं, ब्रह्मचर्य की डिग्री चाहिये थी; वह भी सबके बीच घोषणापूर्वक, जिससे उसे समाज में सर्वत्र सम्मान मिलने लगे, उसको भी पूछ होने लगे, पूजा होने लगे।
जैनधर्मानुसार तो मातवीं ब्रह्मचर्यप्रतिमा तक घर में रहने का अधिकार ही नहीं, कर्तव्य है। अर्थात् बनाकर खाने की ही बात नहीं, कमाकर खाने की भी बात है; क्योंकि वह अभी परिग्रहत्यागी नहीं हुआ है, प्रारंभत्यागी भी नही हुमा है । उसे तो चादर ओढ़ने की भी जरूरत नहीं है; वह तो धोती, कुर्ता, पगड़ी प्रादि पहनने का अधिकारी है। शास्त्रों में कहीं भी इसका निषेध नहीं है।
पर ब्रह्मचर्यप्रतिमा तो दूर, पहली भी प्रतिमा नहीं; कोरा ब्रह्मचर्य लिया, चादर प्रोढ़ी और चल दिये । कमाकर खाना तो दूर, बनाकर खाने से भी छुट्टी। मुझे इस बात की कोई तकलीफ नहीं कि उन्हें समाज क्यों खिलाता है ? समाज की यह गुणग्राहकता प्रशंसनीय ही नहीं, अभिनन्दनीय है। मेरा आशय तो यह है कि जब उनकी व्यवस्था कहीं की समाज नहीं कर पाती है, तब देखिये उनका व्यवहार; सर्वत्र उक्त समाज की बुराई करना मानो उनका प्रमुख धर्म हो जाता है। समाज प्रेम से उनका भार उठाये, मादर करे-बहुत बढ़िया बात है, पर बलात् समाज पर भार डालना शास्त्र-सम्मत नहीं है। ___ ब्रह्मचर्यधर्म तो एकदम अंतर की चीज है, व्यक्तिगत चीज है; पर वह भी प्राज उपाधि (Degree) बन गयी है । ब्रह्मचर्य तो प्रात्मा में लीनता का नाम है, पर जब अपने को ब्रह्मचारी कहने वाले प्रात्मा के नामसे ही बिचकते हों तो क्या कहा जाय ?