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उत्तमब्रह्मचर्य - १६३ की आराधना से विरत नहीं होना चाहिए, उन्हें भी अपनी-अपनी भूमिकानुसार इसे अवश्य धारण करना चाहिये। _मुनियों और गृहस्थों की कौनसी भूमिका में किस स्तर का अन्तर्वाह्य ब्रह्मचर्य होता है - इसकी चर्चा चरणानुयोग के शास्त्रों में विस्तार से की गई है। जिज्ञासु बन्धुनों को इस विषय में विस्तार से वहाँ से जानना चाहिये। उन सबका वर्णन इस लघु निबन्ध में सम्भव नहीं है।
ब्रह्मचर्य एक धर्म है, उसका सीधा सम्बन्ध अात्महित मे है । इसे किसी लौकिक प्रयोजन की सिद्धि का माध्यम बनाना ठीक नहीं है । पर इसका प्रयोग एक उपाधि (Degree) जैसा किया जाने लगा है। यह भी आजकल एक उपाधि (Degree) बन कर रह गया है। जैसे -- शास्त्री, न्यायतीर्थ, एम०ए०, पीएच०डी०; या वाणीभूपण, विद्यावाचस्पति; या दानवीर, सरसेठ आदि उपाधियाँ व्यवहृत होती है। उसीप्रकार इसका भी व्यवहार चल पड़ा है।
यह यश-प्रतिष्ठा का साधन बन गया है। इसका उपयोग इसी अर्थ में किया जाने लगा है। इस कारण भी इस क्षेत्र में विकृति आयी है।
जिसप्रकार अाज की सन्मानजनक उपाधियाँ भीड़-भाड़ में ली और दी जाती हैं, उसीप्रकार इसका भी आदान-प्रदान होने लगा है। अब इसका भी जलम निकलता है। इसके लिए भी हाथी चाहिये, बैंड-बाजे चाहिये। यदि स्त्री-त्याग को भी बैंड-बाजे चाहिये तो फिर शादी-ब्याह का क्या होगा ?
अाज की दुनियाँ को क्या हो गया है ? इमे स्त्री रखने में भी बैड-बाजे चाहिये, स्त्री छोड़ने में भी बैंड-बाजे चाहिये । ममझ में नहीं आता ग्रहण और त्याग में एक-सी क्रिया कमे मम्भव है ?
एक व्यक्ति भीड़-भाड़ के अवसर पर अपने श्रद्धय गुरु के पाम ब्रह्मचर्य लेने पहँचा, पर उन्होंने मना कर दिया तो मेरे जैसे अन्य व्यक्ति के पास सिफारिश कगने के लिये पाया। जव उमसे कहा गया - "गुरुदेव अभी ब्रह्मचर्य नहीं देना चाहते तो मन लो, वे भी नो कुछ सोच-समझ कर मना करते होंगे।"
उसके द्वारा अनुनय-विनयपूर्वक बहुन आग्रह किये जाने पर जव उससे कहा गया कि "भाई ! समझ में नहीं आता कि तुम्हें इतनी परेशानी क्यों हो रही है ? भले ही गुरुदेव तुम्हें ब्रह्मचर्य व्रत न दे, पर