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१६६ 0 धर्म के दशलक्षण
क्या इस छन्द में 'नारी' के स्थान पर 'जननी', 'भगिनी' या 'पुत्री' शब्द का प्रयोग मम्भव है ? ___ नहीं, कदापि नही। क्योंकि फिर उसका रूप निम्नानुमार हो जावेगा. जो हमें कदापि स्वीकार नहीं हो मकना । 'मंसार में विप-बेल जननी, तज गये योगीश्वग।'
या 'संमार में विष-बेल भगिनी, नज गये योगीश्वग।'
या
'संमार में विष-बेल पुत्री, नज गये योगीश्वरा।' यदि नारी शब्द से कवि का आशय माना, बहिन या पुत्री नहीं है तो फिर क्या है ?
स्पष्ट है कि 'नारी' शब्द का प्राशय नर के हृदय में नारी के लक्ष्य में उत्पन्न होने वाले भीग के भाव में है । इमीप्रकार उपलक्षण से नारी के हृदय में नर के लक्ष्य से उत्पन्न होने वाले भोग के भाव भी अपेक्षित है।
यहाँ विपरीत सेक्म के प्रति आकर्षण के भाव को ही विप-बेल कहा गया है, चाहे वह पुरुप के हृदय में उत्पन्न हुआ हो, चाहे स्त्री के हृदय मे । और उगे त्यागने वाले को ही योगीश्वर कहा गया है. चाहे वह स्त्री हो, चाहे पृमा । मात्र शब्दी पर न जाकर शब्दो की अदला-बदली का अनर्थक प्रयाम छोड़कर, उनमें ममा भात्रों को हृदयगम करने का प्रयत्न किया जाना चाहिये ।
गदि हम शब्दो की हेग-फेरी के चक्कर में पड़े तो कहां-कहीं बदलगे. क्या-क्या बदलेंगे? हमे अधिकार भी क्या है इमरी की कृति मे हंग-फेरी करने का।
उक्त पक्तियों में कवि का परम पावन उद्देश्य अब्रह्म मे हटाकर . ब्रह्म में लीन होने की प्रेग्गगा देने का है। हमें भी उनके भाव को पवित्र हृदय से ग्रहण करना चाहिए।
ब्रह्मचर्य अर्थात् प्रात्मरमगगता माक्षात धर्म है. मर्वोत्कृष्ट धर्म है। मभी आत्माएं ब्रह्म के शूद्रस्वरूप को जानकर, पहिचानकर - उमी में जम जांय, रम जाप, और अनन्तकाल तक तदरूप परिणमित रहकर अनन्त मुखी हों, “म पवित्र भावना के माथ विराम लेता हूँ।