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उत्तमब्रह्मचर्य १५९ कैसे हो सकती हैं ? यही कारण है कि इन्द्रियभोगों के समान ही इन्द्रियज्ञान भी ब्रह्मचर्य में साधक नहीं, बाधक ही है ।
लोग कहते हैं :- 'झूठा है संसार, आँख खोलकर देखो' । पर मैं तो यह कहना चाहता हूँ - 'सांचा है आत्मा, ग्राँख बन्द करके देखो' ।
आत्मा आँखें खोलकर देखने की वस्तु नहीं, अपितु बंद करके देखने की चीज है । आँखों से ही क्या, पाँचों इन्द्रियों से उपयोग हटा कर अपने में ले जाने से आत्मा दिखाई देता है ।
फिर भी जब इन्द्रिय के भोगों के त्याग की बात करते हैं तो जगत कहता है - 'ठीक है, इन्द्रियभोग त्यागने योग्य ही हैं, आपने बहुत अच्छा कहा ।' पर जब यह कहते हैं कि इन्द्रियज्ञान भी तो आत्मानुभूतिरूप ब्रह्मचर्य में सहायक नहीं; तो सामान्यजन एकदम भड़क जाते हैं; समाज में खलबली मच जाती है। कहा जाता है - 'तो क्या हम आँख से देखें भी नहीं, शास्त्र भी नहीं पढ़ें ?' और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगता है । बात को गहराई से समझने की कोशिश न करके आरोप-प्रत्यारोप लगाये जाने लगते हैं । पर भाई ! काम तो वस्तु की सही स्थिति समझने से चलेगा, चीखने-चिल्लाने से नहीं ।
अल्पज्ञ आत्मा एक समय में एक को ही जान सकता है, एक में ही लीन हो सकता है । अतः जब यह पर को जानेगा, पर में लीन होगा; तब ग्रपने को जानना, अपने में लीन होना संभव नहीं है । इन्द्रियों के माध्यम से पर को ही जाना जा सकता है, पर में ही लीन हुा जा सकता है । इनके माध्यम से न तो अपने को जाना ही जा सकता है, और न अपने में लीन ही हुआ जा सकता है । अतः इन्द्रियों के द्वारा परपदार्थों को भोगना तो ब्रह्मचर्यं का घातक है ही, इनके माध्यम से बाहर का जानना - देखना भी ब्रह्मचर्य में बाधक ही है ।
इसप्रकार इन्द्रियों के विषय - चाहें वे भोग्यपदार्थ हों, चाहे ज्ञेय पदार्थ; ब्रह्मचर्य के विरोधी ही हैं, क्योंकि वे आखिर हैं तो इन्द्रियों के विषय हो । इन्द्रियों के दोनों प्रकार के विषयों में उलझना, उलझना ही है; सुलझना नहीं । सुलझने का उपाय तो एक प्रात्मलीनतारूप ब्रह्मचर्य ही है ।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब इन्द्रियज्ञान आत्मज्ञान में साधक नहीं है तो फिर शास्त्रों में ऐसा क्यों लिखा है कि सम्यग्दर्शन,