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१५८ 0 धर्म के दशलक्षण तो स्पर्शगुण से रहित है । इसीप्रकार रसना का विषय तो है रस और प्रात्मा है अरम, घ्रारण का विषय तो है गंध और प्रात्मा है अगंध. चक्षु का विषय है रूप और प्रात्मा है प्ररूपी, कर्ण का विषय है शब्द
और आत्मा है शब्दातीत, मन का विषय है विकल्प और आत्मा है विकल्पातीत - इसप्रकार सभी इन्द्रियां और अनिद्रिय (मन) तो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, एवं विकल्प के ग्राहक हैं और प्रात्मा अस्पर्शी, अरस, अगंध, अरूपी एवं शब्दातीत, विकल्पातीत है ।
अतः इन्द्रियातीत-विकल्पातीत प्रात्मा को पकड़ने में, जकड़ने में इन्द्रियाँ और मन अनुपयोगी ही नहीं, वरन् बाधक है, घातक हैं, क्योंकि जब तक यह आत्मा इन्द्रियों एवं मन के माध्यम से ही जानतादेखता रहेगा तब तक आत्मदर्शन नहीं होगा। जब आत्मदर्शन ही न होगा तब आत्मलीनता का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
इन्द्रियों की वृत्ति बहिर्मुखी है और आत्मा अन्तरोन्मुखी वृत्ति से पंकड़ने में आता है। कविवर द्यानतरायजी ने दशलक्षण पूजन में भी कहा है :
'ब्रह्मभाव अन्तर लखो। ब्रह्मस्वरूप प्रात्मा को देखना है तो अन्तर में दग्यो। आत्मा अन्तर में झांकने से दिखाई देती है, क्योंकि वह है भी अन्तर में ही ।
इन्द्रियों की वृत्ति बहिर्मुखी है - क्योंकि वे अपने को नही, पर को जानने-देखने में निमित्त हैं। सभी इन्द्रियों के दरवाजे बाहर को ही खुलते हैं, अन्दर को नहीं । आँख से आँख दिग्वाई नहीं देती, आँख के भीतर क्या है यह भी दिखाई नहीं देता, पर बाहर क्या है यह दिखाई देता है। इसीप्रकार रसना भी अन्दर का स्वाद नही लेती, वरन् बाहर से आने वाले पदार्थों को चखती है। घ्रारण भी क्या भीतर की दुर्गंध संघ पाती है ? जब वही दुर्गंध किसी रास्ते से निकल कर नाक में बाहर से टकराती है, तब नाक उसे ग्रहण कर पाती है । कान भी बाहर की ही मुनते हैं । स्पर्शन भी मान बाहर की सर्दी-गर्मी प्रादि के प्रति सतर्क दिखाई देती है। इसप्रकार पाँचों ही इन्द्रियाँ बहिर्मुख वृत्तिवाली हैं।
बहिर्मुखी वृत्तिवाली एवं रूपरसादि की ग्राहक इन्द्रियाँ अन्तर्मुखी वृत्ति का विषय एवं अरस, अरूपी प्रात्मा को जानने में सहायक