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उत्तमचर्य
ब्रह्म अर्थात् निजशुद्धात्मा में चरना, रमना ही ब्रह्मचर्य है। जैसाकि 'अनगार धर्मामृत' में कहा है :या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्तिः । तद् ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ।।४६०।।
परद्रव्यों से रहित शुद्ध-बुद्ध अपने प्रात्मा में जो चर्या अर्थात लीनता होती है, उसे ही ब्रह्मचर्य कहते हैं। व्रतों में मर्वश्रेष्ठ दम ब्रह्मचर्य व्रत का जो पालन करते हैं, वे अतीन्द्रिय आनंद को प्राप्त करते हैं।
इसीप्रकार का भाव 'भगवती आराधना'' एवं 'पद्मनदिपंचविंशतिका'२ में भी प्रकट किया गया है ।
यद्यपि निजात्मा में लीनता ही ब्रह्मचर्य है; नथापि जब तक हम अपने प्रात्मा को जानेंगे नहीं, मानेंगे नही, नव तक उममें लीनता कैसे संभव है ? इसलिए कहा गया है कि प्रात्मलीनता अर्यात मम्यकचारित्र अात्मज्ञान एवं प्रात्मश्रद्धानपूर्वक ही होता है। ब्रह्मचर्य के साथ लगा उत्तम शब्द भी यही ज्ञान कराता है कि मम्यग्दर्शनसम्यग्जान सहित प्रात्मलीनता ही उत्तमब्रह्मचर्य है।
। अतः यह स्पष्ट है कि निश्चय से ज्ञानानदस्वभावी निजात्मा को ही निज मानना, जानना और उसी में जम जाना, ग्म जाना, लीन हो जाना ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है । ' जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरियाहविज्ज जा गिदो। नं जाण बंभचेर विमुक्कापरदेहतित्तिस्स ।।७।। जीव ब्रह्म है, देह की सेवा से विरक्त होकर जीव में ही जो चर्या होती है उसे ब्रह्मचर्य जानो। मात्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्य पर । स्वाङ्गासंगविवजितकमनसस्तब्रह्मचर्य मुनेः ।। ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप प्रात्मा है । उस पात्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। जिस मुनि का मन अपने शरीर से निर्ममत्व हो गया, उसी के वास्तविक ब्रह्मचर्य होता है ।