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१५२॥ धर्म के दशलक्षारण
आज जो ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ समझा जाता है वह अत्यन्त स्थूल है। आज मात्र स्पर्शन इन्द्रिय के विषय-सेवन के त्यागरूप व्यवहार ब्रह्मचर्य को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है। स्पर्शन इन्द्रिय के भी संपूर्ण विषयों के त्याग को नहीं, मात्र एक क्रियाविशेष (मैथुन) के त्याग को ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है, जबकि स्पर्शन इन्द्रिय का भोग तो अनेक प्रकार से संभव है।
स्पर्शन इन्द्रिय के विषय माठ हैं :
१. ठंडा, २. गरम, ३. कड़ा, ४. नरम, ५. सूखा, ६. चिकना, ७. हलका, और ८. भारी।
इन पाठों ही विषयों में आनंद अनुभव करना स्पर्शन इन्द्रिय के विषयों का ही सेवन है। गर्मियों के दिनों में कूलर एवं सदियों में हीटर का आनंद लेना स्पर्शन इन्द्रिय का ही भोग है। इसीप्रकार डनलप के नरम गहों और कठोर प्रासनों के प्रयोग में आनन्द अनुभव करना नथा रूखे-चिकने व हल्के-भारी स्पों में सुखानुभूति - यह सब स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय हैं । पर अपने को ब्रह्मचारी मानने वालों ने कभी इस ओर भी ध्यान दिया है कि ये सब स्पर्शन इन्द्रिय के विषय है, हमें इनमें भी सुखबुद्धि त्यागनी होगी। इनसे भी विरत होना चाहिये । __इससे यह सिद्ध होता है कि हम स्पर्शन इन्द्रिय के भी संपूर्ण भोग को ब्रह्मचर्य का घातक नहीं मानते, अपितु एक क्रियाविशेष (मैथुन) को ही ब्रह्मचर्य का घातक मानते हैं; और जैसे-तैसे मात्र उमसे बच कर अपने को ब्रह्मचारी मान लेते हैं ।
यदि प्रात्मलीनता का नाम ब्रह्मचर्य है तो क्या स्पर्शन इन्द्रिय के विषय ही प्रात्मलीनता में बाधक है, अन्य चार इन्द्रियों के विषय क्या प्रात्मलीनता में वाधक नहीं हैं ? यदि है, तो उनके भी त्याग को ब्रह्मचर्य कहा जाना चाहिये। क्या रसना इन्द्रिय के स्वाद लेते समय
आत्मस्वाद लिया जा सकता है ? इसीप्रकार क्या सिनेमा देखते समय प्रात्मा देखा जा सकता है ? नहीं, कदापि नहीं।
प्रात्मा किसी भी इन्द्रिय के विषय में क्यों न उलझा हो, उस समय प्रात्मलीनता संभव नहीं है। जबतक पाँचों इन्द्रियों के विषयों से प्रवृत्ति नहीं रुकेगी तब तक प्रात्मलीनता नहीं होगी और जब तक प्रात्मलीनता नहीं होगी तब तक पंचेन्द्रियों के विषयों से प्रवृत्ति का रुकना भी संभव नहीं है।