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१५०० धर्म के दशलक्षण
इसप्रकार बाह्यपरिग्रह का कारण पुण्य, स्वरूप पाप, और फल अशुभ में लगने पर पाप व शुभ में लगने पर पुण्य हुआ।
यहाँ कोई कहे कि यदि यह बात है तो परिग्रह को पाप कहा ही क्यों है ?
वह भले ही पुण्योदय से प्राप्त होता है, पर है तो पाप ही । वह ऐसा वृक्ष है जिसमें बीज पड़ा था पूण्य का, वक्ष उगा पाप का, और फल लगे ऐसे कि खावे तो मरे अर्थात् पाप बांधे और त्यागे तो जीवे अर्थात पुण्य बाँधे । यह विविधता इसके स्वभाव में ही पड़ी है। यही कारगा है कि सबसे बड़ा पाप होने पर भी जगत में परिग्रही को पुण्यात्मा कह दिया जाता है ।
वस्तुनः बात तो ऐसी है कि पाप के उदय से कोई पापी और पुण्य के उदय से कोई पुण्यात्मा नहीं होता, परन्तु पापभाव करे मो पापी, पुण्यभाव करे मो पुण्यात्मा, और धर्मभाव करे सो धर्मात्मा होता है। अन्यथा पूर्ण धर्मात्मा भावलिंगी मनिगजों को भी पापी मानना होगा, क्योंकि उनके भी पाप का उदय पा जाता है, उमसे उन्हें अनेक उपमर्ग एवं कुटादि व्याधियाँ हो जाती हैं; पर वे पापी नही हो जाते, धर्मभाव के घनी होने से धर्मात्मा ही रहते हैं। इमी प्रकार किसी वेश्या या डाकू के पाम बहुत धनादि हो जाने मे वे पुण्यात्मा नहीं हो जाते. पापी ही रहते हैं ।
जगत कुछ भी कहे पर मब पापों की जड़ होने से परिग्रह सबसे बड़ा पाप है और सर्व कषायों और मिथ्यात्व के अभावरूप होने से प्राकिं वन्य सबसे बड़ा धर्म है ।
इम उत्तम आकिंचन्यधर्म को धारण कर सभी प्राणी पूर्ण सुख को प्राप्त करे, इम पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।
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