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उत्तम प्राकिंवन्य 0 ११ "मूर्छा परिग्रहः"" मूर्छा परिग्रह है। मूर्छा की परिभाषा आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार करते हैं :"मूर्छा तु ममत्वपरिणामः"२ ममत्व परिणाम ही मूर्छा है।
प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में (गाथा २७८ की टीका में) आचार्य जयसेन ने लिखा है :
"मूर्छा परिग्रहः" इति सूत्रे यथाध्यात्मानुसारेण मूर्छारूपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति, न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण ।"
मूर्छा परिग्रह है - इस सूत्र में यह कहा गया है कि अंतरंग इच्छारूप रागादि परिणामों के अनुमार परिग्रह होता है, बहिरंग परिग्रह के अनुसार नहीं।
आचार्य पूज्यपाद तत्त्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि में लिखते हैं :
"ममेदवुद्धिलक्षणः परिग्रहः": यह वस्तु मेरी है - इसप्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है।
परिग्रह की उपर्यक्त परिभाषा और स्पष्टीकरणों से परपदार्थ म्वयं में कोई परिग्रह नहीं है - यह स्पष्ट हो जाता है। परपदार्थों के प्रति जो हमारा ममत्व है, राग है- वास्तव में तो वही परिग्रह है। जव परपदार्थों के प्रति ममत्व छूटता है तो तद्नुमार बाह्य परिग्रह भी नियम से छूटता ही है। किन्तु बाह्य परिग्रह के छूटने से ममत्व के छूटने का नियम नहीं है क्योंकि पुण्य के प्रभाव और पाप के उदय में परपदार्थ तो अपने आप ही छूट जाते हैं, पर ममत्व नहीं छूटता; बल्कि कभी-कभी तो और अधिक बढ़ने लगता है ।
परपदार्थ के छूटने से कोई अपरिग्रही नहीं होता; बल्कि उनके रखने का भाव, उसके प्रति एकत्वबुद्धि या ममत्व परिणाम छोड़ने से परिग्रह छूटता है-आत्मा अपरिग्रही अर्थात् प्राकिंचन्यधर्म का धनी बनता है। ' प्राचार्य उमास्वामीः तत्त्वार्थसूत्र प्र० ७, सू० १७ २ पुरुषार्थसिन्युपाय, छन्द १११ ३ सर्वार्थसिखि, म० ६, सू० १५
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