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१४०० धर्म के बरालमारण
'अष्टपाहुड़ (भावपाहुड़)' में सर्वश्रेष्ठ दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं :
भावविशुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चानो।
वाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥३॥ बाह्य परिग्रह का त्याग भावों को विशुद्धि के लिए किया जाता है, परन्तु रागादिभावरूप अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग विना बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है।
बाह्य परिग्रह त्याग देने पर भी यह आवश्यक नहीं कि अन्तरंग परिग्रह भी छूट ही जायेगा। यह भी हो सकता है कि बाह्य में तिलतुषमात्र भी परिग्रह न दिखाई दे, परन्तु अंतरंग में चौदहों परिग्रह विद्यमान हों। द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनियों के यही तो होता है । प्रथम गुग्गस्थान में होने से उनमें मिथ्यात्वादि सभी अंतरंग परिग्रह पाये जाते हैं, पर बाह्य में वे नग्न दिगम्बर होते हैं।
'भगवती आराधना' में स्पष्ट लिखा है :अभंतरसोधीए गंथे गिगयमेण वाहिरे च यदि । अभंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि ह गंथे ।।१६१५।। अभंतरसोधीए बाहिरमोधी वि होदि गियमेण । अब्भंतरदोसेण हु कुगादि, गरो बाहिरे दोसे ।।१६१६।।
अंतरंग शुद्धि होनेपर बाह्य परिग्रह का नियम से त्याग होता है । अभ्यन्तर अशुद्ध परिणामों में ही वचन और शरीर से दोषों की उत्पत्ति होती है । अंतरंग शुद्धि होने से बहिरंग शुद्धि भी नियम से होती है। यदि अंतरंग परिणाम मलिन होंगे तो मनुष्य शरीर और वचनों से भी दोष उत्पन्न करेगा।
वस्तुतः बात तो यह है कि धन-धान्यादि स्वयं में कोई परिग्रह नहीं हैं, बल्कि उनके ग्रहण का भाव, संग्रह का भाव-परिग्रह है। जब तक परपदार्थों के ग्रहण या संग्रह का भाव न हो तो मात्र परपदार्थों की उपस्थिति से परिग्रह नहीं होता; अन्यथा तीर्थंकरों के तेरहवें गुणस्थान में होनेपर भी देह व समोशरणादि विभूतियों का परिग्रह मानना होगा, जबकि अंतरंग परिग्रहों का सद्भाव दशवें गुणस्थान तक ही होता है। ___सभी बातों का ध्यान रखते हुए जिनागम में परिग्रह की परिभाषा इसप्रकार दी गई है :