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१४२ D धर्म के बरालक्षारण
शरीरादि परपदार्थों और रागादि चिद्विकारों में एकत्वबुद्धि, अहंबुद्धि ही मिथ्यात्व नामक प्रथम अंतरंग परिग्रह है। जब तक यह नहीं छूटता तब तक अन्य परिग्रहों के छूटने का प्रश्न ही नहीं उठता। पर इस मुग्ध जगत का इस ओर ध्यान ही नहीं है ।
सारी दुनियां परिग्रह की चिन्ता में ही दिन-गत एक कर रही है, मर रही है। कुछ लोग परपदार्थों के जोड़ने में मग्न हैं, तो कुछ लोगों को धर्म के नाम पर उन्हें छोड़ने की धुन सवार है। यह कोई नही सोचता कि वे मेरे हैं ही नहीं, मेरे जोड़ने से जुड़ते नहीं और ऊपर-ऊपर से छोड़ने से छूटते भी नहीं। उनकी परिणति उनके अनुमार हो रही है, उसमें हमारे किए कुछ नहीं होता। यह प्रात्मा तो मात्र उन्हें जोड़ने या छोड़ने के विकल्प करता है, तदनुसार पाप-पुण्य का बंध भी करता रहता है।
पुण्य के उदय में अनुकल परपदार्थों का बिना मिलाये भी सहज संयोग होता है। इसीप्रकार पाप के उदय में प्रतिकूल परपदार्थों का संयोग होता रहता है। यद्यपि इममें इसका कुछ भी वश नही चलना तथापि मिथ्यात्व और राग के कारण यह अज्ञानी जगत अनुकूलप्रतिकूल मंयोगों-वियोगों में अहबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि किया करता है । यही अहंबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि मिथ्यात्व नामक सबसे खतरनाक परिग्रह है । सबसे पहिले इसे छोड़ना जरूरी है ।
जिसप्रकार वृक्ष के पत्तों के सीचने से पत्ते नहीं पनपते. वरन् जड़ को सींचने से पत्ते पनपते हैं; उसीप्रकार समस्त अतरंग-बहिरंग परिग्रह मिथ्यात्वरूपी जड़ से पनपते हैं। यदि हम चाहते हैं कि पत्ते सूख जावें तो पत्तों को तोड़ने से कुछ नहीं होगा, नवीन पत्ते निकल पावेंगे; पर यदि जड़ ही काट दी जावे तो फिर समय पाकर पत्ते पापों-आप सूख जायेंगे। उसीप्रकार मिथ्यात्वरूपी जड़ को काट देने पर बाकी के परिग्रह समय पाकर स्वतः छूटने लगेंगे।
जब यह बात कही जाती है तो लोग कहते हैं कि बस पर को अपना मानना नहीं है, छोड़ना तो कुछ है नहीं। यदि कुछ छोड़ना नहीं है तो फिर परिग्रह छूटेगा कैसे ? ___ अरे भाई ! छोड़ना क्यों नहीं है ? पर को अपना मानना छोड़ना है । जब पर को अपना मानना ही मिथ्यात्व नामक प्रथम परिग्रह है, तो उसे छोड़ने के लिए पर को अपना मानना ही छोड़ना होगा।