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उत्तम प्राकिंचन्य १३७
जिन रुपयों-पैसों को जगत परिग्रह माने बैठा है, वह अंतरंग परिग्रह तो है ही नहीं, पर धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों में भी उसका नाम नहीं है । वह तो बाह्य परिग्रहों के विनिमय का कृत्रिम साधन मात्र है । उसमें स्वयं कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके लोभ से जगत उसका संग्रह करे । यदि उसके माध्यम से धन-धान्यादि भोग- सामग्री प्राप्त न हो तो उसे कौन समेटे ? दश हजार का नोट अब बाजार में नहीं चलता तो अब उसे कौन चाहता है ? जगत की दृष्टि में उसकी कीमत तभी तक है जब तक वह धन-धान्यादि बाह्यपरिग्रहों की प्राप्ति का साधन है । साधन में साध्य का उपचार करके ही वह परिग्रह कहा जा सकता है, पर चौबीस परिग्रहों में नाम तक न होने पर भी प्राज यह पच्चीसवाँ परिग्रह ही सब कुछ बना हुआ है ।
रुपये-पैसे को बाह्य परिग्रह में भी स्थान न देने का एक कारण यह भी रहा कि उसकी कीमत घटती-बढ़ती रहती है। रुपये-पैसे का जीवन में डायरेक्ट तो कोई उपयोग है नहीं, वह धन-धान्यादि जीवनोपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति का साधन मात्र है । अणुव्रतों में परिग्रह का परिमाण जीवनोपयोगी वस्तुनों का ही किया जाता है । रुपये-पैसों की कीमत घटती-बढ़ती रहने से मात्र उसका परिमारण किये जाने पर परेशानी हो सकती है ।
मान लीजिये एक व्यक्ति ने दश हजार का परिग्रह परिमारण किया । जब उसने यह परिमारण किया था तब उसके मकान की कीमत पाँच हजार रुपये थी, कालान्तर में उसी मकान की कीमत पचास हजार रुपये भी हो सकती है । इसीप्रकार धन-धान्यादि की भी स्थिति समझना चाहिए । अतः परिग्रह - परिमाणव्रत में धन-धान्यादि नित्योपयोगी वस्तुनों के परिमारण करने को कहा गया ।
परिग्रह - परिमाणधारी को तो जीवनोपयोगी परिमित वस्तुनों की आवश्यकता है, चाहे उनकी कीमत कुछ भी क्यों न हो । परिग्रह परिमाणधारी घर में ही रहता है, अतः उसे सब चाहिए - धन-धान्य, क्षेत्र - मकान, वर्तनादि । पर श्राज की स्थिति बदल गई है, क्योंकि कोई भी परिग्रह - परिमाणधारी घर में नहीं रहना चाहता । वह अपने को गृहस्थ नहीं, साधु समझता है; जबकि अणुव्रत गृहस्थों के होते हैं, साधुत्रों के नहीं । उसे बनाकर ही नहीं, कमाकर खाना चाहिए; पर वह कमा कर खाना तो बहुत दूर, बनाकर भी नहीं खाना चाहता है । वह अपने घर में नहीं, धर्मशालाभों में रहता है और अपना सारा