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१३८ धर्म के दशलक्षण भार समाज पर डालता है । अतः न उसे अब मकान की आवश्यकता रही है, और न धन-धान्यादि की । यही कारण है कि वह परिग्रह का परिमाण भी रुपये-पैसों में करने लगा है।
बड़ी विचित्र स्थिति हो गई है । एक अणुवती ने मुझसे कहा - "मैं आपसे अपनी एक शंका का समाधान एकान्त में करना चाहता हूँ।"
जब मैंने कहा- "तत्त्वचर्चा में एकान्त की क्या आवश्यकता है ?" तब वे बोले- "कुछ व्यक्तिगत बात है।"
एकान्त में बोले- "मेरी एक समस्या है, उसका समाधान प्रापसे चाहता हूँ। बात यह है कि मैंने पाँच हजार का परिग्रहपरिमारणव्रत लिया था। जब परिमारण किया था तब मेरे पास इतने भी पैसे नहीं थे और न प्राप्त होने की सम्भावना ही थी, पर बाद में पैसे प्राप्त हुए और ब्याज बढ़ता गया। खर्चा तो कुछ था नहीं, लगभग दश हजार हो गए। मैं बहुत परेशानी में था, अतः मैंने अपने एक माथी व्रतीब्रह्मचारी से चर्चा की तो उन्होंने कहा कि तुम कुछ समझते तो हो नहीं। इसमें क्या है, जब तुमने व्रत लिया था तव मे अव रुपये की कीमत आधी रह गई है। अतः दश हजार रखना कोई अनुचित नहीं है।
उनकी बात मेरी रुचि के अनुकूल होने से मैंने स्वीकार कर ली। पर अब रुपये और बढ़ रहे हैं, बारह-तेरह तक पहुंच गये हैं। अव क्या करूँ, मेरी समझ में नहीं पाता । यद्यपि उक्त तर्क के आधार पर मैंने मर्यादा बढा ली थी. अब भी बढ़ा सकता है; पर मेरा हृदय न मालूम क्यों इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा है।"
उनकी बात का तत्काल तो मैं कुछ विशेष उत्तर न दे मका पर उक्त प्रश्न ने मेरे हृदय को झकझोर डाला। मैंने उक्त बात पर गम्भीरता से चिन्तन किया। विचार करते-करते मुझे यह विन्दु हाथ लगा कि आखिर आगम में रुपये-पैसों को परिगट में क्यों नहीं गिनाया? ____समझ में नहीं आता, धार्मिक समाज को आज क्या हो गया है ? परिग्रह के पूर्णतः त्यागी महाव्रती साधु और परिग्रह-परिमाणवती प्रणवती गृहवासी गृहस्थ-दोनों ही मठवासी, मन्दिरवासी, धर्मशालावासी हो गए हैं। एक को वन में रहना चाहिए, दूसरे को घर में; पर न वनवासी वन में रहते हैं और न गृहवासी गृह में; और एक साथ धर्मशालावासी हो गए हैं । पाहार देने वाले अणुव्रती गृहस्थ भी