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१३६ 0 धर्म के बरालमण
जब एक परिग्रह-परिमाणधारी से पूछा गया कि परिग्रह तो चौबीम होते हैं, आपने तो चौबीसों ही का परिमाण किया होगा? तब वे आश्चर्यचकित से बोले - "नहीं, हमने तो सिर्फ रुपयों का ही परिमाण किया है, आप बताओ तो चौबीस का कर लेंगे।"
मैंने कहा - "सो तो ठीक है, पर आपने कभी विचार भी किया है कि चौबीम परि ग्रहों का परिमाण हो भी सकता है या नहीं ?"
तब वे तत्काल कहने लगे- "क्यों नहीं हो सकता, सब हो सकता है, दुनिया में ऐसा कौनसा काम है जो आदमी से न हो सके ? आदमी चाहे तो सब कुछ कर सकता है।"
___ मैंने कहा- "ठीक, आपको चौबीस परिग्रहों के नाम तो आते ही होंगे? पहला परिग्रह 'मिथ्यात्व' है, उसका परिमारण हो सकता है क्या ? यदि 'हाँ' तो फिर कितना मिथ्यात्व रखना और कितना छोड़ना? क्या मिथ्यात्व भी कुछ रखा और कुछ छोड़ा जा सकता
वे भौंचक्के-से देखते रहे; क्योंकि मिथ्यात्व भी एक परिग्रह है, यह उन्होंने आज ही सुना था।
अस्तु ! मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा
"भाई ! मिथ्यात्व के पूर्णतः छूटे बिना नी व्रत होते ही नहीं, अत. परिग्रह-परिमारगवत लेने वाले के मिथ्यात्व है हो कहाँ जो उसका परिमारण किया जाय ।
इसीप्रकार क्रोध, मान, माया, लोभादि विकारी भावरूप अंतरंग परिग्रहों का भी परिमाण कैसे और कितना किया जाय – इसका भी विचार किया कभी ?"
चौथे गूगास्थान की अपेक्षा पंचम गुणस्थान में प्रात्मा का अधिक व उग्र प्राश्रय होने मे अनन्तानबंधी एवं अप्रत्यख्यानावरण क्रोधादि का प्रभाव हो जाता है तथा किंचित् कमजोरी के कारण प्रत्यख्यानावरण एवं संज्वलन क्रोधादि का सद्भाव बना रहता है, तदनुसार धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह की सीमा बुद्धिपूर्वक की जाती है।
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का नाम ही परिग्रह-परिमाणवत है ।
जन-सामान्य को इन चौबीस परिग्रहों की तो खबर नहीं, रुपयेपैसे को ही अपनी कल्पना से परिग्रह मानकर उसकी ही उल्टीसीधी मर्यादा करके अपने को परिग्रह-परिमारणवती मान लेते हैं।