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उत्तम प्राचिन्य 0 १३५ मिथ्यात्व का अभाव किये बिना ही अपरिग्रही बनने के यत्न नहीं किये जाते।
परिग्रह सबसे बड़ा पाप है और प्राकिंचन्य सबसे बड़ा धर्म । जगत में जितनी भी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं - उन सबके मूल में परिग्रह है। जब मोह-राग-द्वेष आदि मभी विकारी भाव परिग्रह हैं तो फिर कौन सा पाप बच जाता है जो परिग्रह की सीमा में न पा जाता हो।
मोहराग-द्वेप भावों की उत्पत्ति का नाम ही हिंसा है । कहा भी है :
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमम्य संक्षेपः ।।' गग-द्वेप-मोह आदि विकारी भावों की उत्पनि ही हिमा है और उन भावों का उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा है ।
झूठ, चोरी, कुशील में भी राग-द्वेष-मोह ही काम करते हैं। अतः राग-द्वेप-मोहमय होने से परिग्रह सबसे बड़ा पाप है।
क्षमा तो क्रोध के अभाव का नाम है । इसीप्रकार मार्दव मान के, आर्जव माया के तथा शौच लोभ के अभाव का नाम है। पर आकिचन्यधर्म - क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, प्रगति, शोक, भय, जुगुप्मा, स्त्रीवेद, पुरुपवेद, नपुंसकवेद मभी कपायों के अभाव का नाम है । अतः आकिंचन्य सबसे बड़ा धर्म है ।
आज नो वाह्य परिग्रह में भी मात्र रुपये-पैसे को ही परिग्रह माना जाता है; धन-धान्यादि की ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाना। किसी भी परिग्रह-परिमागधारी प्रणवती से पूछिये कि आपका परिग्रह का परिमाग क्या है ? तो तत्काल रुपयों-पैमों में उत्तर देगे। कहेंगे कि - "दश हजार या बीस हजार ।" "और....?" यह पूछेगे तो कहेंगे- "और क्या ?"
मैं जानना चाहता हूँ कि क्या रुपया-पैसा ही परिग्रह है और कोई परिग्रह नहीं ? धन-धान्य, क्षेत्र-वास्तु, स्त्री-पुत्रादि बाह्य परिग्रहों की भी बात नहीं, तो क्रोध-मानादि अंतरंग परिग्रहों की कौन पूछता है ? 'भाचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थसिख युपाय, छन्द ४४