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१३४ धर्म के दशलक्षरण
जब भी परिग्रह या परिग्रहत्याग की चर्चा चलती है - हमारा ध्यान बाह्य परिग्रह की ओर ही जाता है; मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभादि भी परिग्रह हैं - इस ओर कोई ध्यान ही नहीं देता । क्रोध, मान, माया, लोभ की जब भी बात आयेगी तो कहा जायेगा कि ये तो कषायें हैं; पर कषायों का भी परिग्रह होता है, यह विचार नहीं प्राता ।
जब जगत क्रोध - मानादि को भी परिग्रह मानने को तैयार नहीं तो फिर हास्यादि कषायों को कौन परिग्रह माने ?
पाँच पापों में परिग्रह एक पाप है और हास्यादि कषायें परिग्रह के भेद हैं । पर जब हम हँसते हैं, शोकसंतप्न होते हैं, तो क्या यह समझते हैं कि हम कोई पाप कर रहे हैं या इनके कारण हम परिग्रही हैं ?
बहुत
से परिग्रह- त्यागियों को कहीं भी खिलखिलाकर हँसते, हड़बड़ाकर डरते देखा जा सकता है। क्या वे यह अनुभव करते हैं कि यह सब परिग्रह है ?
जयपुर में लोग भगवान की मूर्तियां लेने आते हैं और मुझसे कहते हैं कि हमें तो बहुत सुन्दर मूर्ति चाहिए, एकदम हँसमुख । मैं उन्हें समझाना हूँ कि भाई ! भगवान की मूर्ति हॅममुख नहीं होती । हास्य तो कषाय है, परिग्रह है और भगवान तो अकपायी, अपरिग्रही हैं; उनकी मूर्ति हँसमुख कैसे हो सकती है ? भगवान की मूर्ति की मुद्रा तो वीतरागी शान्त होती है । कहा भी है :
'जय परशान्त मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेन' ।" 'छवि वीतरागी नग्न मुद्रा, दृष्टि नाशा पर धरें' ।
यह भी बहुत कम लोग जानते हैं कि सब पापों का बाप लोभ भी एक परिग्रह है । शब्दों में जानते भी हों तो यह ग्रनुभव नहीं करते कि लोभ भी एक परिग्रह है, अन्यथा यश के लोभ में दौड़-धूप करते तथाकथित परिग्रह त्यागी दिखाई नहीं देते ।
घोर पापों की जड़ मिथ्यात्व भी एक परिग्रह है; एक नहीं, नम्बर एक का परिग्रह है - जिसके छूटे बिना अन्य परिग्रह छूट ही नहीं सकते - इस ओर भी कितनों का ध्यान है ? होता तो
१ पं० दौलतरामजी कृत देव-स्तुति २ कविवर बुधजनकृत देव -स्तुति