________________
उत्तम पाकिचन्य 0 १३३ जिस परिग्रह के त्याग से आकिंचन्यधर्म प्रकट होता है, पहले उसे समझना मावश्यक है।
परिग्रह दो प्रकार का होता है - प्राभ्यन्तर और बाह्य ।
आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेषादिभावरूप प्राभ्यन्तर परिग्रह को निश्चयपरिग्रह और बाह्य परिग्रह को व्यवहारपरिग्रह भी कहा जाता है । जैसा कि 'धवल' में कहा है :___"ववहारणयं पडुच्च खेनादी गंथो, अभंतरगंथकारणत्तादो। एदस्स परिहरणं रिणग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छतादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो । तेसिं परिच्चागो रिणग्गंथत्तं ।"' ___व्यवहारनय की अपेक्षा से क्षेत्रादिक ग्रंथ हैं, क्योंकि वे आभ्यंतरग्रंथ के कारण हैं, इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा से मिथ्यात्वादि ग्रंथ हैं, क्योंकि वे कर्मबंध के कारगा हैं और उनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है ।
इसप्रकार निर्ग्रन्थता अर्थात आकिंचन्यधर्म के लिये प्राभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का अभाव (त्याग) आवश्यक है। यही निश्चय-व्यवहार की संधि भी है।
आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार के होते हैं :
१. मिथ्यात्व, २. क्रोध, ३. मान, ४ माया, ५. लोभ, ६ हास्य, ७. रति, ८. अरति, ६. शोक, १०. भय, ११. जुगुप्या (ग्लानि), १२. स्त्रीवेद, १३. पुरुषवेद और १४. नपुंसकवेद ।
बाह्य परिग्रह दश प्रकार के होते हैं :
१. क्षेत्र (खेत), २. मकान, ३. चांदी, ४. सोना, ५. धन, ६. धान्य, ७. दासी, ८. दास, ६. वस्त्र और १०. बर्तन ।
इसप्रकार परिग्रह कुल चौबीस प्रकार के माने गये हैं। कहा भी है :
'परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करें मुनिराज जी।
उक्त चौबीस प्रकार के परिग्रह के त्यागी मुनिराज उत्तम प्राचिन्यधर्म के धारी होते हैं।
' धवला पुस्तक ६, खण्ड ४, माग १, सूत्र ६७, पृष्ठ ३८३ ३ दशलक्षण पूजन, उत्तम पाकिचन्य का छन्द