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१२६ । धर्म के बरालक्षण
पर उन्हें इससे क्या ? उन्हें तो पैसा चाहिए और देने वालों को भी क्या? उनका नाम पाटिये पर लिखा जाना चाहिए। इसप्रकार देने वाले यश के लोभी और लेने वाले पैसे के लोभी- इन लोभियों ने लोभ के अभाव में होने वाले दान को भी विकृत कर दिया है।
___ त्यागधर्म का यह दुर्भाग्य ही समझो कि उसकी चर्चा के लिए वर्ष में महापर्व दशलक्षण के दिनों में एक दिन मिलता है, उसे यह दान खा जाता है। दान क्या खा जाता है, दान के नाम पर होने वाला चन्दा खा जाता है । यह दिन चन्दा करने में चला जाता है, त्यागधर्म के सच्चे स्वरूप की परिभाषा भी स्पष्ट नहीं हो पाती।
समाज में त्यागधर्म के मच्चे स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला विद्वान् बड़ा पण्डित नहीं, बल्कि वह पेशेवर पण्डिन वड़ा पण्डित माना जाता है जो अधिक से अधिक चन्दा कग सके। यह उम देश का, उस समाज का दुर्भाग्य ही समझो जिस देश व समाज में पण्डिन और साधुओं के वड़प्पन का नाप ज्ञान और संयम से न होकर दान के नाम पर पैसा इकट्ठा करने की क्षमता के आधार पर होता है।
इस वृत्ति के कारण समाज और धर्म का मवसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि पंडितों और साधुओं का ध्यान ज्ञान और संयम से हटकर चन्दे पर केन्द्रित हो गया है। जहाँ देवो धर्म के नाम पर विशेषकर त्यागधर्म के नाम पर, दान के नाम पर, चन्दा इकट्ठा करने में ही इनकी शक्ति खर्च हो रही है, जान और ध्यान एक ओर रह गये है।
यही कारण है कि उत्तम त्यागधर्म के दिन हम त्याग की चर्चा न करके दान के गीत गाने लगते हैं। दान के भी कहाँ दानियों के गीत गाने लगते हैं। दानियों के गीत भी कहाँ- एक प्रकार से दानियों के नाम पर यश के लोभियों के गीत ही नहीं गाते; चापलमी तक करने लगते हैं। यह सब बड़ा अटपटा लगता है, पर क्या किया जा सकता है -मिवाय इमके कि स्वयं बचें और त्यागधर्म का मही स्वरूप स्पष्ट करें । जिनका सदभाग्य होगा वे समझेगे, बाकी का जो होना होगा सो होगा।
यद्यपि चार दानों में पैसा दान नहीं है तथापि उसका भी दान हो सकता है, होता भी है। पैसे के दान को दान ही नहीं मानने की बात नहीं कही जा रही है; पर वह ही सब-कुछ नहीं है - मात्र यह स्पष्ट किया है।