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उत्तमत्याग D१२७ दान देने वाले से लेने वाला बड़ा होता है। पर यह बात तब है जब देने वाला योग्य दातार और लेने वाला योग्य पात्र हो । मुनिराज आहारदान लेते हैं और गृहस्थ आहारदान देते हैं। मुनिराज त्यागी हैं, त्यागधर्म के धनी हैं; गृहस्थ दानी है, अतः पुण्य का भागी है। धर्मतीर्थ के प्रवर्तक बाह्याभ्यंतर परिग्रहों के त्यागी भगवान आदिनाथ हुए और उन्हें ही मुनि अवस्था में आहार देने वाले राजा श्रेयांस दानतीर्थ के प्रवर्तक माने गए हैं।
गृहस्थ नौ बार नमकर मुनिराज को आहार दान देता है, पर अाज दान के नाम पर भीख मांगने वालों ने दातारों की चापलूसी करके उन्हें दानी से मानी बना दिया है । देने वाले का हाथ ऊंचा रहता है, आदि चापलूसी करते लोग कहीं भी देखे जा सकते हैं। आकाश के प्रदेशों में ऊंचा रहने से कोई ऊंचा नहीं हो जाता । मक्खी राजा के मस्तक पर भी बैठ जाती है तो क्या वह महाराजा हो गई ? गृहस्थों से मुनिराज सदा ही ऊँचे हैं । दातार भी यह मानता है, पर इन चापलूसों को कौन समझाए ?
दानी से त्यागी सदा ही महान होता है; क्योंकि त्याग धर्म है और दान पुण्य ।
यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि आहारदान में तो ठीक, पर ज्ञानदान में यह बात कैसे सम्भवित होगी? ___ इसप्रकार कि ज्ञानदान अर्थात् समझाना; समझाने का भाव भी शुभभाव होने से पुण्यबंध का कारण है । अतः ममझाने वाले को पुण्य का लाभ अर्थात् पुण्य का बंध ही होता है जबकि समझने वाले को ज्ञानलाभ प्राप्त होता है। लाभ की दृष्टि से ज्ञानदान लेनेवाला फायदे में रहा।
यहां कोई यह कह सकता है कि आप तो व्यर्थ ही पैसों का दान देने और लेने वालों की आलोचना करते हैं। यदि ऐसा न हो तो संस्थाएँ चलें कैसे ?
अरे भाई ! हम उनकी बुराई नहीं करते। किन्तु दान का सही स्वरूप न समझने के कारण दान देकर भी जो दान का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त नहीं कर पाते- उनके हित को लक्ष्य में रखकर उसका सही स्वरूप बताते हैं, जिसे जानकर वे वास्तविक लाभ उठा सकें। रही बात संस्थानों की सो आप उनकी बिलकुल चिन्ता न करें। यदि