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धर्म के दशलक्षरण
श्रापकी बात बिल्कुल ठीक है, पर समझने की बात यह है कि 'दान' व्यवहारधर्म है और 'त्याग' निश्चयधर्मं ।
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वे धनादि परपदार्थ जिन पर लौकिक दृष्टि से अपना अधिकार है, व्यवहार से अपने हैं; उन्हें अपना जानकर ही दान दिया जाता है । लेन-देन स्वयं व्यवहार है, निश्चय में तो लेने-देने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । रही परपदार्थ के त्याग की बात, सो पर को पर जानना ही उनका त्याग है - इससे अधिक त्याग और क्या है ? वे तो पर हैं हीं, उनको क्या त्यागें ? पर बात यह है कि उन्हें हम अपना मानते हैं, उनसे राग करते हैं; अतः उनको अपना मानना और उनसे राग करना त्यागना है । इसलिये यह ठीक ही कहा है कि पर को पर जानकर उनके प्रति राग का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है ।
गहराई से विचार करें तो त्याग, मोह-राग-द्वेष का ही होता है; पर - पदार्थ तो मोह-राग-द्वेष के छूटने से स्वयं छूट जाते हैं । वे छूटे हुये ही हैं । इसीलिये भगवान को 'राग-द्वेषपरित्यागी' कहा गया है ।
यदि आप कहें कि अभी तो यह कहा था कि त्याग पर का होता है और अब कहने लगे कि त्याग मोह-र -रागT-द्वेष का होता है ?
भाई ! आध्यात्मिक दृष्टि से मोह-राग-द्वेष भी तो पर ही हैं । यद्यपि वे आत्मा में उत्पन्न होते हैं तथापि वे आत्मा के स्वभाव नहीं, अतः उन्हें भी प्राध्यात्मिक शास्त्रों में 'पर' कहा गया है ।
जहाँ तक परोपकार की बात है, उसके सम्बन्ध में बात यह है कि यद्यपि कोई किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता तथापि ज्ञानी को भी दूसरों के भले करने का भाव आये बिना रहता नहीं है, क्योंकि अभी उसके राग-भाव विद्यमान है । दूसरी बात यह है कि निश्चय से कोई किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता, पर व्यवहार से तो शास्त्रों में भी एक-दूसरे के भले-बुरे करने की बात कही गई है; भले ही वह कथन उपचरित हो, कथन मात्र हो, पर है तो । 'दान' व्यवहारधर्म है, अतः वह परोपकार सम्बन्धी विकल्प: बँक ही होता है । यही कारण है कि वह पुण्य बंध का कारण होता है, बंध के प्रभाव का कारण नहीं । जो व्यक्ति उसे निश्चयधर्म मानकर बंध के प्रभाव (मुक्ति) का कारण मान बैठते हैं वे तो गलती करते ही हैं, साथ ही