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उत्तमत्याग ० १२१ वे भी गलती करते हैं जो उसे पुण्य बंध का कारण भी नहीं मानते अर्थात व्यवहारधर्म भी स्वीकार नहीं करते।
त्याग खोटी चीज का किया जाता है और दान अच्छी चीज का दिया जाता है । यही कहा जाता है कि क्रोध छोड़ो, मान छोड़ो, माया छोड़ो, लोभ छोड़ो; यह कोई नहीं कहता कि ज्ञान छोड़ो। जो दुःखस्वरूप हैं, दुःखकर हैं, आत्मा का अहित करने वाले हैं - वे मोह-रागद्वेष रूप प्रास्रवभाव ही हेय हैं, त्यागने योग्य हैं, इनका ही त्याग किया जाता है। इनके साथ ही इनके आश्रयभूत अर्थात् जिनके लक्ष्य से मोह-राग-द्वेष भाव होते हैं- ऐसे पुत्रादि चेतन एवं धन-मकानादि अचेतन पदार्थों का भी त्याग होता है। पर मुख्य बात मोह-राग-द्वेष के त्याग की ही है, क्योंकि मोह-राग-द्वेष के त्याग से इनका त्याग नियम से हो जाता है; किन्तु इनके त्याग देने पर भी यह गारण्टी नहीं कि मोह-राग-द्वेष छूट ही जावेंगे।
बहुत से लोग तो त्याग और दान को पर्यायवाची ही समझने लगे हैं। किन्तु उनका यह मानना एकदम गलत है। ये दोनों शब्द पर्यायवाची तो हैं ही नहीं, अपितु कुछ अंशों में इनका भाव परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध पाया जाता है ।
यदि ये दोनों शब्द एकार्थवाची होते तो एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग आसानी से किया जा सकता था। किन्तु जब हम इस प्रकार का प्रयोग करके देखते हैं तो अर्थ एकदम बदल जाता है। जैसे दान चार प्रकार का कहा गया है- (१) आहारदान, (२) औषधिदान, (३) ज्ञानदान मोर (४) अभयदान ।
अब जरा उक्त चारों शब्दों में 'दान' के स्थान पर 'त्याग' शब्द का प्रयोग करके देखें तो सारी स्थिति स्वयं स्पष्ट हो जाती है।
क्या आहारदान और पाहारत्याग एक ही चीज है ? इसी प्रकार क्या औषधिदान और प्रौषधित्याग को एक कहा जा
सकता है?
नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि पाहारदान और प्रौषधिदान में दूसरे पात्र-जीवों को भोजन और प्रौषधि दी जाती है, जबकि पाहारत्याग और प्रौषधित्याग में आहार और प्रौषधि का स्वयं सेवन करने का त्याग किया जाता है। आहारत्याग और प्रौषधित्याग में किसी को कुछ देने का सवाल ही नहीं उठता। माहारदान