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उत्तमत्याग
उत्तमत्यागधर्म की चर्चा जब भी चलती है तब-तब प्रायः दान को ही त्याग समझ लिया जाता है । त्याग के नाम पर दान के ही गीत गाये जाने लगते है, दान की ही प्रेरणाएँ दी जाने लगती हैं ।
सामान्यजन तो दान को त्याग समझते ही हैं; किन्तु आश्चर्य तो तब होता है जब उत्तमत्यागधर्म पर वर्षों व्याख्यान करने वाले विद्वज्जन भी दान के अतिरिक्त भी कोई त्याग होता है - यह नहीं समझाते या स्वयं भी नहीं समझ पाते ।
यद्यपि जिनागम में दान को भी त्याग कहा गया है, दान देने की प्रेरणा भी भरपूर दी गई है, दान की भी अपनी एक उपयोगिता है, महत्त्व भी है; तथापि जब गहराई में जाकर निश्चय से विचार करते हैं तो दान और त्याग में महान अन्तर दिखाई देता है । दान और त्याग बिल्कुल भिन्न भिन्न दो चीजे प्रतीत होती हैं ।
त्याग धर्म है, और दान पुण्य । त्यागियों के पास रंचमात्र भी परिग्रह नहीं होता, जबकि दानियों के पास ढेर सारा परिग्रह पाया जा सकता है ।
त्याग की परिभाषा श्री प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका ( गाथा २३६ ) में प्राचार्य जयसेन ने इसप्रकार दी है :'निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्याग: ।' निज शुद्धात्म के ग्रहगापूर्वक बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्ति त्याग है ।
इसी बात को बारसस- अणुवेखा ( द्वादशानुप्रेक्षा) में इसप्रकार कहा गया है
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रिव्वेगनियं भावड मोहं चइऊरण सव्व दव्वेसु ।
जो तस्स हवेच्चागो इदि भग्गिदं जिरगवरिंदेहि ||७८ ||
जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जो जीव सम्पूर्ण परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है; उसके त्यागधर्मं होता है ।