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११६ ० धर्म के बालमण
'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में अकलंक देव सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं।'
उक्त कथनों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यद्यपि त्याग शब्द निवृत्तिसूचक है, त्याग में बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग होता है; तथापि त्यागधर्म में निजशुद्धात्मा का ग्रहण अर्थात् शुद्धोपयोग और शुद्धपरिणति भी शामिल है।
एक बात और भी स्पष्ट होती है कि त्याग परद्रव्यों का नहीं, अपितु अपनी आत्मा में परद्रव्यों के प्रति होने वाले मोह-राग-द्वेष का होता है। क्योंकि परद्रव्य तो पृथक् ही हैं, उनका तो आज तक ग्रहण ही नहीं हुआ है; अतः उनके त्याग का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? उन्हें अपना जाना है, माना है, उनसे राग-द्वेष किया है; अतः उन्हें अपना जानना, मानना (दर्शनमोह) एवं उनके प्रति राग-द्वेष करना (चारित्रमोह) छोड़ना है।
यही कारण है कि वास्तविक त्याग पर में नहीं, अपने मेंअपने ज्ञान में होता है। यही भाव कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने समयसार में इसप्रकार व्यक्त किया है :
सब्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति रणादूरणं ।
तम्हा पच्चक्खाणं गाणं रिणयमा मुरण्यव्वं ॥३४॥ अपने से भिन्न समस्त परपदार्थों को 'ये पर हैं' - ऐसा जानकर जब त्याग किया जाता है तब वह प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग कहा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि वस्तुतः ज्ञान ही प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग है।
त्याग ज्ञान में ही होता है अर्थात् पर को पर जानकर उससे ममत्वभाव तोड़ना ही त्याग है। इस बात को समयसार गाथा ३५ की आत्माख्याति टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने सोदाहरण इसप्रकार स्पष्ट किया है :__"जैसे कोई पुरुष धोबी के घर से भ्रमवश दूसरे का वस्त्र लाकर, उसे अपना समझ ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी हो रहा है। किन्तु जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर पकड़कर खींचता 'परिग्रहस्थ चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्यागः इति निश्चीयते ।
- अध्याय १, सूब ६