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उस मत ११३
चिन्तन तो हमारे जीवन से समाप्त हो हो रहा है । पाठ भी किया जाता है, पर बिना समझे मात्र दुहराना होता है; दुहराना भी सही रूप से कहीं हो पाता है ?
भक्तामर और तत्त्वार्थसूत्र का नित्य पाठ सुनने वाली बहुतसी माता - बहिनों को उनमें प्रतिपादित विषयवस्तु की बात तो बहुत दूर, उसमें कितने अध्याय हैं - इतना भी पता नहीं होता है । किन्हीं महाराज से प्रतिज्ञा ले ली है कि सूत्रजी का पाठ सुने बिना भोजन नहीं करूंगी - सो उसे ढोये जा रही हैं ।
वास्तविक 'पाठ' तो बाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षापूर्वक होता है । विषय का मर्म ख्याल में आ जाने के बाद उसे धारणा में लेने के उद्देश्य से 'पाठ' किया जाता है ।
उपदेश का क्रम सबसे अन्त में श्राता है, पर आज हम उपदेशक पहिले बनना चाहते हैं - बाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और आम्नाय के बिना ही । धर्मोपदेश के सुनने वाले भी इसके प्रति सावधान नहीं दिखाई देते । धर्मोपदेश के नाम पर कोई भी उन्हें कुछ भी सुना दे; उन्हें तो सुनना है, सो सुन लेते हैं । वक्ता और वक्तव्य पर उनका कोई ध्यान ही नहीं रहता ।
मैं एक बात पूछता हूँ कि यदि आपको पेट का प्रॉपरेशन कराना हो तो क्या बिना जाने चाहे जिससे करा लेंगे ? डॉक्टर के बारे में पूरी-पूरी तपास करते हैं। डॉक्टर भी जिस काम में माहिर न हो, वह काम करने को सहज तैयार नहीं होता । डॉक्टर और ऑपरेशन की बात तो बहुत दूर; यदि हम कुर्ता भी सिलाना चाहते हैं तो होशियार दर्जी तलाशते हैं, और दर्जी भी यदि कुर्त्ता सोना नहीं जानता हो तो सीने से इन्कार कर देता है । पर धर्म का क्षेत्र ऐसा खुला है कि चाहे जो बिना जाने-समझे उपदेश देने को तैयार हो जाता है और उसे सुनने वाले भी मिल ही जाते हैं ।
वस्तुतः बात यह है कि धर्मोपदेश देने और सुनने को हम गंभीररूप से ग्रहण ही नहीं करते, यों ही हलके-फुलके निकाल देते हैं । अरे भाई ! धर्मोपदेश भी एक तप है, वह भी अंतरंग; इसे प्राप खेल समझ रहे हैं । इसकी गंभीरता को जानिए - पहचानिए । उपदेश देने-लेने की गभीरता को समझिये, इसे मनोरंजन और समय काटने की चीज मत बनाइये । यह मेरा विनम्र अनुरोध है ।