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________________ १५२ व रालक्षण प्रथम, तत्त्वनिरूपक-प्राध्यात्मिक ग्रन्थों को बांचना और अपनी बुद्धि से जितना भी मर्म निकाल सकें, पूरी शक्ति से निकालना'बांचना स्वाध्याय है। उसके बाद भी यदि कुछ समझ में न आवे तो समझने के उद्देश्य से किसी विशेष ज्ञानी से विनयपूर्वक पूछना - 'पृच्छना स्वाध्याय' है । जो बाँचा है उस पर तथा पूछने पर ज्ञानी महापुरुष से जो उत्तर प्राप्त हुआ हो, उस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना, चिन्तन करना- 'अनुप्रेक्षा स्वाध्याय' है । बाँचना, पृच्छना, और अनुप्रेक्षा के बाद निर्णीत विषय को स्थिर धारणा के लिए बारम्बार घोखना,पाठ करना-'पाम्नाय स्वाध्याय' है। बाँचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और आम्नाय (पाठ) के बाद जब विषय पर पूरा-पूरा अधिकार हो जावे तब उसका दूसरे जीवों के हितार्थ उपदेश देना- 'धर्मोपदेश' नाम का स्वाध्याय है। ___ उक्त विवेचन से निश्चित होता है कि मात्र बाँचना ही स्वाध्याय नहीं, प्रात्महित की दृष्टि से समझने के लिए पूछना भी स्वाध्याय है, चिन्तन और पाठ भी स्वाध्याय है, यहाँ तक कि यशादि के लोभ के बिना स्व-परहित की दृष्टि से किया गया धर्मोपदेश भी स्वाध्यायतप में माता है। पर इनमें एक क्रम है। प्राज हम उस क्रम को भूल गये हैं। हम शास्त्रों को बांचे बिना ही पूछना प्रारम्भ कर देते हैं। यही कारण है कि हमारे प्रश्न ऊटपटांग होते हैं। जब तक किसी विषय का स्वयं गंभीर अध्ययन नहीं किया जायगा तब तक तत्संबंधित गंभीर प्रश्न मी कहाँ से आवेंगे ? बहुत से प्रश्न दूसरों की परीक्षा के लिए भी किये जाते हैं। वे 'पृच्छना स्वाध्याय' में नहीं पाते। जो निरन्तर दूसरों की बुद्धि परखने के लिए ही प्रश्न उछाला करते हैं, उनको लक्ष्य करके महाकवि बनारसीदासजी ने लिखा है : 'परनारी संग परबद्धि को परखिवो' अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिये ही विनयपूर्वक प्रश्न किये जाने चाहिये । उद्दण्डतापूर्वक वक्ता का गला पकड़ने की कोशिश करना स्वाध्यायतपतो है ही नहीं, जिनवाणी की विराधना का प्रथम कार्य है। 'बनारसीदास : नाटक समयसार. साध्य-सापकगार, बन्द २९
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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