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________________ उत्तमतप 0 १११ यद्यपि स्वाध्याय के भेदों में बांचना, पृच्छना आदि पाते हैं तथापि यद्वा-तद्वा कुछ भी वाचना, पूछना स्वाध्याय नहीं है । क्या बाँचना? कैसे बाँचना? क्या पूछना? किससे पूछना ? कैसे पूछना? प्रादि विवेकपूर्वक किये गये वाँचना, पृच्छना आदि ही स्वाध्याय कहे गये हैं। मंदिर में गये; जो भी शास्त्र हाथ लगा, उसी की - जहाँ से खुल गया दो चार पंक्तियाँ खड़े-खड़े पढ़ली और स्वाध्याय हो गया, वह भी इसलिये कि महाराज प्रतिज्ञा लिवा गये थे कि 'प्रतिदिन स्वाध्याय अवश्य करना' - यह स्वाध्याय नहीं है। हमें आध्यात्मिक ग्रंथों के स्वाध्याय की वैसी रुचि भी कहाँ है जैसो कि विपय-कषाय और उसके पोषक साहित्य पढ़ने की है। ऐसे बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने किसी आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक या दार्शनिक ग्रन्थ का स्वाध्याय आद्योपान्त किया हो। साधारण लोग तो बँधकर स्वाध्याय करते ही नहीं, पर ऐसे विद्वान भी बहुत कम मिलेगे जो किसी भी महान ग्रन्थ का जमकर अखण्डरूप से स्वाध्याय करते हों । प्रादि से अन्त तक अखण्डरूप से हम किसी ग्रन्थ को पढ भी नहीं सकते तो फिर उसकी गहराई में पहुँच पाना कैसे संभव है ? जब हमारी इतनी भी रुचि नहीं कि उसे अखण्डरूप से पढ़ भी सके तो उसमें प्रतिपादित अखण्ड वस्तु का प्रखण्ड स्वरूप हमारे ज्ञान और प्रतीति में कैसे आवे ? विषय-कषाय के पोषक उपन्यासादि को हमने कभी अधूग नहीं छोड़ा होगा, उसे पूरा करके ही दम लेते हैं; उसके पीछे भोजन को भी भूल जाते हैं। क्या प्राध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन में भी कभी भोजन को भूले हैं ? यदि नही, तो निश्चित समझिये हमारी रुचि अध्यात्म में उतनी नहीं जितनी विषय-कषाय में है। ___'रुचि अनुयायी वीर्य' के नियमानुसार हमारी सम्पूर्ण शक्ति वहीं लगती है, जहां रुचि होती है । स्वाध्यायतप के उपचार को भी प्राप्त करने के लिए हमें आध्यात्मिक साहित्य में अनन्य रुचि जागृत करनी होगी। स्वाध्यायतप के पाँच भेद किये गये हैं : (१) बाँचना, (२) पृच्छना (पूछना), (३) अनुप्रेक्षा (चिन्तन), (४) माम्नाय (पाठ) और (५) धर्मोपदेश । इनमें स्वाध्याय की प्रक्रिया का क्रमिक विकास लक्षित होता है।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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