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________________ ११० धर्म के दशलक्षरण बिना विचारे हम सब पैर दबाते आ रहे हैं और मानते आ रहे हैं कि हम वैयावृति कर रहे हैं. इसका फल हमें अवश्य मिलेगा । साथ ही यह भी मानते श्रा रहे हैं कि वैयावृत्यतप मुनियों के होता है । यावृत्ति का अर्थ सेवा होता है - यह सही है । पर सेवा का अर्थ पैर दबाना हमने लगा लिया है । वैयावृत्ति में पैर भी दवाये जाते हैं, पर पैर दबाना ही मात्र वैयावृत्ति नहीं है । सेवा स्व और पर दोनों की होती है । वास्तविक सेवा तो स्त्र औौर पर को आत्महिन में लगाना है । ग्रात्महित एकमात्र शुद्धोपयोगरूप दशा में है । शुद्धोपयोगरूप रहने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही वास्तविक वैयावृत्ति है । 1 यदि गंग आदि के कारगा अपना या दूसरे साथी मुनिराज का चित्त स्थिरता को प्राप्त न हो पा रहा हो तो पैर दबाना' आदि के द्वारा उनके चित्त को स्थिरता प्रदान करना भी वैयावृत्ति है; किन्तु बिना किनी कारण आराम से पैर दबाते-दबवाते रहना कभी वैयावृत्ति नहीं हो सकती । और हो भी तो वह नप नहीं, अन्नग्ग तप तो कदापि नहीं । यदि कोई मुनिराज भयंकर पाड़ा से कराह रहे हैं, उनका चित्त स्थिर नहीं हो पा रहा है; ऐसी स्थिति में उन्हें कोरा उपदेश देने पर उनके परिणामों में स्थिरता याना सम्भव नहीं है । पर यदि उनकी सेवा करते हुए उन्हें सम्बोधित किया जाय तो स्थिरता शीघ्र प्राप्त हो सकती है। एकमात्र यही कारण है जिससे शारीरिक सेवा को वैयावृत्यतप में स्थान प्राप्त है । विनय और वैयावृत्यतप के बारे में विचार करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि ये अन्तरंग नप है, बाह्यप्रवृत्तिमात्र से इनको जोड़ना ठीक नहीं | स्वाध्याय भी अंतरंग तप है । स्वाध्याय को परमतप कहा गया है ( स्वाध्यायं परमं तपः ) । पर आज तो हम प्रातः उठकर सबसे पहिले समाचार-पत्रों का स्वाध्याय करने लगे है ! यहाँ-वहाँ का कुछ भी पढ़ लेना स्वाध्याय नहीं है, श्रात्महितकारी शास्त्रों का अध्ययन-मनन-चिन्तन भी उपचार से स्वाध्याय है । वास्तविक स्वाध्याय तो आत्मज्ञान का प्राप्त होना ही है । स्व + प्रधि + मय = स्वाध्याय । 'स्व' माने निज का, 'अधि' माने ज्ञान और 'श्रय' माने प्राप्त होना- इसप्रकार निज का ज्ञान प्राप्त होना ही स्वाध्याय है; पर का ज्ञान तो पराध्याय है ।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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