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उत्तमत १०८
उपचारविनय में कुछ लोग माता-पिता आदि लौकिकजनों की विनय को लेते हैं पर यह ठीक नहीं है ।
ज्ञानविनय निश्चयविनय है और ज्ञानी की विनय उपचारविनय है, दर्शनविनय निश्चयविनय है और सम्यग्दृष्टि की विनय उपचारविनय है, चारित्र की विनय निश्चयविनय है और चारित्रवंतों की विनय उपचारविनय है । इसप्रकार ज्ञान-दर्शन- चारित्र की विनय निश्चयविनय और इनके धारक देव-गुरुनों की विनय उपचारविनय है ।
विनयतप तपधर्म का भेद है, अतः इसका उपचार भी धर्मात्मा में ही किया जा सकता है; लौकिक जनों में नहीं ।
किसी के चरणों में मात्र माथा टेक देने का नाम विनयतप नहीं है । बाहर से तो मायाचारी जितना नमता है - हो सकता है असली विनयवान उतना नमता दिखाई न भी दे । यहाँ बाह्य विनय की बात नहीं, अंतरंग बहुमान की बात है; विनय अंतरंग तप है। बाहर से नमने वालों की फोटू खींची जा सकती है, अंतरंग वालों की नहीं । ज्ञान- दर्शन - चारित्र के प्रति अन्तर में अनन्त बहुमान के भाव और उनकी पूर्णता को प्राप्त करने के भाव का नाम विनयतप है ।
बाहर से नमनेरूप विनय तो कभी-कभी ही देखी जा सकती है, पर बहुमान का भाव तो सदा रहता है । अतः ज्ञान-दर्शन- चारित्र के प्रति अत्यन्त महिमावंत मुनिराजों के विनयतप सदा ही रहता है ।
वैयावृत्यतप के सम्बन्ध में भी जगत में कम भ्रान्त धारणाएँ नही हैं । तपस्वी साधुनों की सेवा करने, पैर दबाने आदि को ही व्यावृत्य समझा जाता है ।
यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि वैयावृत्ति करना तप है या कराना अर्थात् दूसरों के पैर दावना तप है या दूसरों से पैर दबवाना तप है ? यदि पैर दाबना तप है तो फिर पैर दाबने वाले गृहस्थ के तप हुआ, दबवाने वाले मुनिराज के नहीं; जबकि तपस्वी मुनिराज को कहा जाता है । ये बारह तप हैं भी मुख्यतः मुनिराजों के ही ।
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यदि आप यह कहें कि पैर दबवाना तप है तो फिर ऐसा तप किसे स्वीकार न होगा ? दूसरे हमारी सेवा करें और सेवा करवाने से हम तपस्वी हो जावें, इससे अच्छा और क्या होगा ?