________________
उत्तमतप 0 १०३ में उलझे किन्तु दश-दश दिन तक उपवास के नाम पर लंघन करने वालों को बड़ा तपस्वी मानती है, उनके सामने ज्यादा भूकती है; जबकि प्राचार्य समन्तभद्र ने तपस्वी की परिभाषा इसप्रकार दी है :
विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।।' पंचेन्द्रियों के विषयों की प्राशा, प्रारम्भ और परिग्रह से रहित; ज्ञान, ध्यान और तप में लीन तपस्वी ही प्रशंसनीय है।
उपवास के नाम पर लंघन की बात क्यों करते हो?
इसलिये कि ये लोग उपवास का भी तो सही स्वरूप नहीं समझते । मात्र भोजन-पान के त्याग को उपवाम मानते हैं. जबकि उपवास तो आत्मस्वरूप के समीप ठहरने का नाम है। नास्ति से भी विचार करें तो पंचेन्द्रियों के विषय, कपाय और ग्राहार के त्याग को उपवाम कहा गया है, शेष तो सब लंघन है ।
कपायविपयाहारो त्यागो यत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेय: शेषं लंघनकं विदुः ।। इसप्रकार हम देखते हैं कि कषाय, विपय और ग्राहार के त्यागपूर्वक प्रात्मस्वरूप के समीप ठहरना - ज्ञान-ध्यान में लीन रहना ही वास्तविक उपवास है। किन्तु हमारी स्थिति क्या है ? उप वाम के दिन हमारी कषायें कितनी कम होती है ? उपवास के दिन नो ऐमा लगता है जैसे हमारी कषाये चौगुनी हो गई हैं।
एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त बारह तपी में प्रथम की अपेक्षा दूसरा, दूमरे की अपेक्षा तीसग, इसीप्रकार अन्त तक उत्तरोत्तर तप अधिक उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण हैं । अनशन पहला तप है और ध्यान अन्तिम । ध्यान यदि लगातार अन्तर्मुहर्त करे तो निश्चित रूप में केवलज्ञान की प्राप्ति होती है. किन्तु उपवास वर्ष भर भी करे तो केवलज्ञान की गारण्टी नही। यह नकली उपवास की वात नहीं, असली उपवास की बात है। प्रथम तीर्थंकर मनिगज ऋषभदेव दीक्षा लेते ही एक वर्ष एक माह और सात दिन तक निराहार रहे, फिर भी हजार वर्ष तक केवलज्ञान नहीं हुआ। भन्न चक्रवर्ती को दीक्षा लेने के बाद प्रात्मध्यान के बल से एक अन्नर्मुहर्त में ही केवलज्ञान हो गया। ' रत्नकरण्ड श्रावकाचार, छन्द १० २ मोलमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २३१