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१०२ ० धर्म के दशलक्षण
नपवत ही जानना । जैसे अनशनादि बाह्य क्रिया हैं उसीप्रकार यह भी वाद्य क्रिया हैं; इसलिए प्रायश्चित्तादि बाद्य माधन अंतरंग तप नहीं हैं। ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अंतरंग परिणामों की शुद्धता हो, उसका नाम अंतरंग तप जानना।''
यद्यपि अंतरंग तप ही वास्तविक तप है, बहिरंग तप को उपचार से तपसंज्ञा है; तथापि जगतजनों को बाह्य तप करने वाला ही बड़ा नपस्वी दिखाई देता है।
एक घर के दो सदस्यों में से एक ने निजल उपवास किया: पर दिन भर गहस्थी के कार्यों में ही उलझा रहा। दूसरे ने यद्यपि दिन में भोजन दो वार किया; किन्तु दिनभर आध्यात्मिक अध्ययन, मनन. चिन्तन, लेखन, पठन-पाठन करता रहा ।
जगतजन उपवास करने वाले को ही तपस्वी मानेंगे, पठन-पाठन करने वाले को नहीं। जितना कोमल व्यवहार उपवास वाले मे किया जायगा उतना पठन-पाठन वाले में नहीं। यदि उमने अधिक गड़बड़ की तो डाँट भी पड़ेगी। कहा जायगा कि तुमने तो दो-दो बार खाया है, उसका तो उपवास था। हर बात में उपवाम वाले को प्राथमिकता प्राप्त होगी।
ऐमा क्यों होता है। __ इसलिए कि जगतजन उसे तपस्वी मानते हैं. जबकि उसने कुछ नही किया। उपवास किया अर्थात भोजन नहीं किया, पानी नहीं पिया। यह सब तो नहीं किया हुअा। किया क्या ? कुछ नही । जबकि अध्ययन-मनन-चिन्तन, पठन-पाटन करने वाले ने यह मब किया है - वाह्य ही नही; पर ये सब स्वाध्याय के ही रूप हैं और स्वाध्याय भी एक तप है। पर उसे यह भोला जगत तपस्वी मानने को तैयार नहीं, क्योंकि उसे यह कुछ किया-सा ही नहीं लगता।
उपवाम तो कभी-कभी किया जाना है, पर स्वाध्याय और ध्यान प्रतिदिन किये जाते हैं। स्वाध्याय और ध्यान अन्तरंग तप हैं और नपों में सर्वश्रेष्ठ हैं। फिर भी यह जगत स्वाध्याय और ध्यान करने वालों की अपेक्षा उपवासादि काय-क्लेश करने वालों को ही महत्त्व देता है।
यह दुनियाँ ऐसा भेद मुनिराजों में भी डालती है। दिन-रात प्रात्मचिन्तन में रत ज्ञानी-ध्यानी मुनिराजों की अपेक्षा जगत-प्रपंचों ' मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २३२