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उत्तमतप १०१
उक्त समस्त तपों में - चाहे वे बाह्य तप हों या अंतरंग, एक शुद्धोपयोगरूप वीतरागभाव की ही प्रधानता है । इच्छात्रों के निरोधरूप शुद्धोपयोगरूपी वीतरागभाव ही सच्चा तप है । प्रत्येक तप में वीतराग भाव की वृद्धि होनी ही चाहिए तभी वह तप है अन्यथा नहीं ।
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इस सन्दर्भ में प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी के विचार दृष्टव्य हैं :
" अनशनादि को तथा प्रायश्चित्तादि को तप कहा है, क्योंकि अनशनादि साधन से प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्तन करके वीतरागभावरूप सत्यतप का पोषण किया जाता है; इसलिए उपचार से अनशनादि को तथा प्रायश्चित्तादि को तप कहा है । कोई वीतरागभावरूप तप को न जाने और इन्हीं को तप जानकर संग्रह करे तो संसार ही में भ्रमरण करेगा । बहुत क्या, इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है, अन्य नाना विशेष बाह्यसाधन की अपेक्षा उपचार से किए हैं, उनको व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना ।""
"ज्ञानीजनों को उपवासादि की इच्छा नहीं है, एक शुद्धोपयोग की इच्छा है; उपवासादि करने से शुद्धोपयोग बढ़ता है, इसलिए उपवासादि करते हैं । तथा यदि उपवासादि से शरीर या परिणामों की शिथिलता के कारण शुद्धोपयोग को शिथिल होता जाने तो वहाँ हायटेक ग्रहण करते हैं.
प्रश्न :- -यदि ऐसा है तो अनशनादिक को तपसंज्ञा कैसे हुई ?
समाधान :- उन्हें बाह्य तप कहा है । सो बाह्य का अर्थ यह है कि - 'बाहर से औरों को दिखाई दे कि यह तपस्वी है,' परन्तु प्राप तो फल जैसे अंतरंग परिणाम होंगे, वैसा ही पायेगा; क्योंकि परिणामशून्य शरीर की क्रिया फलदाता नहीं है"
बाह्य साधन होने से अंतरंग तप की वृद्धि होती है इसलिये उपचार से इनको तप कहा है; परन्तु यदि बाह्य तप तो करे श्रौर अंतरंग तप न हो तो उपचार से भी उसे तपसंज्ञा नहीं है ।"
"तथा अंतरंग तपों में प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप जो क्रियाएँ; उनमें बाह्य प्रवर्तन उसे तो बाह्य
' मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २३३
२ मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २३१