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१००० धर्म के बसलमरण
उत्तम तप सब मांहि बखाना, करम शैल को बज्र समाना।'
उक्त पंक्तियों में दो-दो बार तप के लिए कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाला बताया गया है। यह भी कहा गया है कि जिस तप को देवराज इन्द्र भी चाहते हैं, जो वास्तविक सुख प्रदान करने वाला है; उसे दुर्लभ मनूप्यभव प्राप्त कर हम भी अपनी शक्ति अनुसार क्यों न करें? अर्थात् हमें अपनी शक्ति अनुसार तप अवश्य करना चाहिए ।
जिस तप के लिए देवराज तरसें और जो तप कर्म-शिखर को बज्र समान हो वह तप कैसा होता होगा- यह बात मननीय है। उसे मात्र दो-चार दिन भूखे रहने या अन्य प्रकार से किये बाह्य काय-क्लेशादि तक सीमित नहीं किया जा सकता।
उत्तमतप अपने स्वरूप और सीमाओं की सम्यक जानकारी के लिए गंभीरतम अध्ययन, मनन और चिंतन की अपेक्षा रखता है।
यदि भोजनादि नहीं करने का नाम ही तप होता तो फिर देवता उसके लिए तरसते क्यों ? भोजनादि का त्याग तो वे आसानी से कर सकते हैं। उनके भोजनादि का विकल्प भी हजारों वर्ष तक नहीं होता। यह बात संयम की चर्चा करते समय विस्तार से स्पष्ट की जा चुकी है।
तप दो प्रकार का माना गया है :(१) बहिरंग और (२) अंतरंग । बहिरंग तप छह प्रकार का होता है :
(१) अनशन (२) अवमौदर्य (३) वृत्तिपरिसंख्यान (४) रसपरित्याग (५) विविक्त शय्यासन और (६) काय-क्लेश ।
इसीप्रकार अंतरंग तप भी छह प्रकार का होता है :
(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) व्युत्सर्ग, और (६) ध्यान ।
इसप्रकार कुल तप बारह प्रकार के होते हैं। ' दशलक्षण पूजन, तप सम्बन्धी छन्द २ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंस्थानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाप
तपः । तत्त्वार्थसूत्र, प्रध्याय ६, सूत्र १६ ' प्रायश्चित्तविनयबयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्'।
तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र २०