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उत्तमतप D देह और आत्मा का भेद नहीं जानने वाला अज्ञानी मिथ्यादृष्टि यदि घोर तपश्चरण भी करे तब भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । समाधिशतक में आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं :
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् ।
लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः ।।३३॥ जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता, वह घोर तपश्चरण करके भी मोक्ष को प्राप्त नहीं करता ।
उत्तमतप सम्यक्चारित्र का भेद है और सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान विना नहीं होता। परमार्थ के बिना अर्थात् शुद्धात्मतत्त्वरूपी परम अर्थ की प्राप्ति विना किया गया समस्त तप बालतप है । प्राचार्य कुन्दकुन्द समयसार में लिखते है :
परमम्हि दु अठिदो जो कुरादि तवं वदं च धारेदि । तं सव्वं बालतवं बालवदं बॅति सव्वण्ह ।।१५२।।
परमार्थ में अस्थित अर्थात् आत्मानुभूति में रहित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब व्रतों और तप को सर्वज्ञ भगवान बालव्रत और बालनप कहते हैं।
जिनागम में उत्तमतप की महिमा पद-पद पर गाई गई है। भगवती आराधना में तो यहाँ तक लिखा है :
तं रात्थि जंग लब्भइ नवमा मम्म कएप पुरिमस्स । अग्गीव तरणं जलियो कम्मतणं डहदि य तवग्गी ॥१४७२।। सम्म कदस्स अपरिस्सवस्स ग फलं तबस्म बण्णदं । कोई अस्थि समत्थे जस्स वि जिब्भा सयमहस्सं ।।१४७३।।
जगत में ऐमा कोई पदार्थ नहीं जो निर्दोष तप से पुरुष को प्राप्त न हो सके अर्थात् तप से मर्व उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है। जिसप्रकार प्रज्वलित अग्नि तण को जलाती है; उसीप्रकार तपरूपी अग्नि कर्मरूप तृण को जलाती है। उत्तम प्रकार से किया गया कर्मास्रव रहित नप का फल वर्णन करने में हजार जिह्वा वाला भी समर्थ नहीं हो सकता।
तप की महिमा गाते हुए महाकवि द्यानतरायजी लिखते हैं :तप चाहैं सुरराय, करम शिखर को बन है। द्वादश विध मुखदाय, क्यों न करें निज सकति सम ।।