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उत्तमतप
प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध परमागम प्रवचनसार की तात्पर्यवत्ति नामक संस्कृत टीका (७६वीं गाथा) में तप की परिभाषा आचार्य जयसेन ने इसप्रकार दी है :'समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः ।'
ममस्त रागादि परभावों को इच्छा के त्याग द्वारा स्व स्वरूप में प्रतपन करना-विजयन करना तप है। तात्पर्य यह है कि समस्त रागादि भावों के त्यागपूर्वक प्रात्मस्वरूप में - अपने में लीन होना अर्थात् आत्मलीनता द्वारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है।
इसीप्रकार का भाव प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र ने भी व्यक्त किया है : ' 'धवल' में इच्छा निरोध को तप कहा है। इसप्रकार हम देखते हैं कि नास्ति से इच्छामों का प्रभाव और अस्ति मे प्रात्मस्वरूप में लीनता ही तप है।
तप के साथ लगा 'उत्तम' शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है । सम्यग्दर्शन के बिना किया गया समस्त नप निरर्थक है।
कहा भी है :सम्मत्तविरहिया णं सुठ्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंनि बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ।।५।।'
यदि कोई जीव सम्यक्त्व के बिना करोड़ों वर्षों तक उग्र तप भी करे तो भी वह बोधिलाभ प्राप्त नहीं कर सकता। इसीप्रकार का भाव पंडित दौलतरामजी ने भी व्यक्त किया है :
कोटि जन्म तप न, ज्ञान बिन कर्म झरे जे ।
ज्ञानी के छिन माँहि, त्रिगुप्ति ते सहज टरें ते ॥ ' प्रवचनसार, गाथा १४ की टीका २ धवला पुस्तक १३, खण्ड ५, भाग ४, सूत्र २६, पृष्ठ ५४ प्राचार्य कुन्दकुन्द : प्रष्टपाहुड़ (दर्शनपाहुड़), गाथा ५ छहढाला, चतर्फ ढाल, छन्द ५