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________________ दिस्कंधर्निकपरस्परवेधहोईहै। सत्रानिनछन्यगुणगाना||घ|| जघन्यगुणक धारक परमाणं हे तिनकै बंधन नहीं होइ है। जिसपरमाणुमै सुत्तपरणं कावा सचिणपणांका एञ्प्रभिभागपरिचे दर हिजायसोवेधकूंयाप्त नही होईदै ॥ जो एक गुएस्निध् होइतिसपरमाणू कै एक गुए स्निग्धकरितथा संख्यात असे ख्यातअनंतगुणस्निग्ध्कखिंधनही होइ है। तैसेही एकगुण स्निग्धपरमाण एक गुणरूक्षपरमां करितथा संख्यातः असंख्यातअनंतगुणरूक्षपरमाणक वेिधकूनंदी प्राप्त होइहै। प्रेस एकगुरु परमाणूहू दोयकुंआदिदेयअ निकरुक्ष स्निग्धगुणकेधारक परमाणं सून दीवधैहै॥ सूत्रं गुणसाम्पसहर शनी॥३५॥गुण निकरिसमान होइ तथा सहरा हो यति निकै द्रवंधनही होइदै॥ दोयगुणस्निग्ध्क्के धारक परमाएफ कैअरअन्य दोयगुणधारकपर माणूनिकै वेधूनही हो॥ तथातीनच्यारपेचसंख्यानश्रसंख्याक्तअनंतगुण
SR No.010804
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size39 MB
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