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होहिंति मज्झ गेहे महग्घरयणाणसंखरासीओ। तो सब्वाण वि उवरिं भविस्सए मज्झ ईसरियं ॥९॥ क्ष अप्पसमाणं काउं पेच्छिस्सइ मं तओ नरिंदो वि । मज्झ अणिच्छंतस्स य अप्पिस्सइ नयरसेढिपयं ॥ | तत्तो अवायवहुलं समुद्दवणिज अहं चएऊणं । सयलपुहईपसिद्धो एत्थ भविस्सामि ववहरओ ॥११॥
दविणं कलंतरेण य बुडिंढ तहकह वि वञ्चिहइ दूरं।
संखें तस्स न अहमवि जह जाणिस्सामि कइया वि ॥१२॥ तो मज्झ घरदुवारे नरिंदसामंतमंडलीएहिं । सेवागएहिं दविणत्थमइसएणं निरुद्धम्मि ॥१३॥ A सकिस्सइ संचरित्रं पि नेय कोऽवि हु तओ य मह एवं । ईसरियं च पसिद्धी पहुत्तणं चेव एयाई ॥१४॥ | तिन्नि वि अणुत्तराई होहिंति समग्गभुवणमज्झम्मि | मह बंधवो उ चिट्ठइ धम्मेकरसो अतत्तन्नू ॥१५॥
तस्स न होही विह्वो ववसायाभावओ चिय जडस्स । न हि छुहियस्स कओऽवि हु अव्यवसायस्स वयणम्मि ॥१६॥ निवडा किंचि वि तम्हा नियईसरियाइ किमवि नेयस्स ।
देमि निरस्थयमेव य भिन्नो होऊण तो एवं ॥१७॥ जहचिंतियववसायं करेमि एमाइ पच्छिमनिसाए । चित्ते निच्छइऊणं पभायसमयम्मि उढे ॥१८||
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