________________
भव. भावना प्रकरणे
हिंसावे गंगदत्ताख्यानकम्
पुन्वभववेरियत्तेण तीए अरई जणेइ सो गरुइं । तो बद्धपओसा तम्मि पियइ दुट्ठोसहे एसा ॥१३॥
गम्भो य विणस्सइ तह वि नेय निरुवकमाउयत्तेण ।
अरइमहासायरनिवडिया य कह कह वि तो एसा ॥१४॥ पसवइ पुत्तं कालेण दासचेडीए अप्पिउं तं च । उज्झावेड पउट्टा दिहो पिउणा य निजतो ॥१५॥ गहिओ य तीइ हत्थाओ सा य सव्वं पि तेण परिपट्टा । साहेड वायरं तो विचिंतए सो जहा एसो ॥ न हवइ जणणिसयासे तो अन्नघरम्मि अप्पि छन्नं । वद्धारिजइ धाईहिं गंगदत्तो त्ति कयनामो ॥१७॥ नायं जणणीए इमं कहमवि सो वडए जहऽन्नत्थ | भत्तारस्स वि उवरिं तो रोसं वहइ सा हियए ॥१८॥ पुचभवन्भासेण य नेहो ललियंगयस्त बंधुम्मि | तो दोऽवि पियापुता तं पडियग्गंति जत्तेण ॥१९॥ खाणं पाणं वत्थाइयं च सव्वं पि देंति से छन्नं । रममाणो य कया विहु बाहिं जणणीइ सो दिहो ॥२० तो कुद्धाए बहुयं पिट्टे मारि पि आरद्धो । किंतु करुणापरेहि केहिं वि मोयाविओ कहवि ॥२१॥ जाओ य अन्नया को वि ऊसवो जाणिऊण तो जणओ। ललियंगणं सद्धिं भोयणवेलाइ लहुपुत्तं ॥२२॥ ठावेइ गंगदत्तं पट्टीए अप्पणो दुवेण्हं पि । छन्नं च देति पक्कन्नमाइ नियभायणेहिंतो ॥२३॥ जणणीए विन्नाओ धरिउं याहाए कढिओ तत्तो । हणि पण्हिपहारेहिं असुइमज्झम्मि पक्खित्तो॥
॥ ३८२ ॥