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भव
भावना प्रकरणे
निचं पि रसोई कारवेइ तीसे य दोसगुणविसयं । अन्नन्नजणेण समं कुणमाणो चिट्ठइ वियारं ॥६॥ ववसायं च न किंचि वि कुत्र्वइ जणयाइएहिं भन्नंतो । उक्किहमज्झिमाहमरसे रसंतो गमइ दियहं ॥७॥ अह अन्नया विचिंत सव्वेऽवि हु ता मए रसा भुत्ता । मइरामंसरसेहिं विणा अभोजेहिं अम्ह कुले ॥८ ता जइ भुंजामि न ते न नियत्तइ ताव मज्झ मणवंछं । ता जं जायइ तं होउ 'भुंजणिजा मए ते वि ॥ | इय चिंतिऊण लग्गो मइरामंसाइ भुंजिउं छन्नं । गिद्ध पच्छा पयडं पि भुंजए रयणिदिवसे ॥१०॥ | अम्मापिऊहिं तत्तो निबारिओ जत्तओ सखेएहिं । अन्नेहिं वि विद्धेहिं लोएण गुरूहि य सुहीहिं ॥ ११ ॥ तह वि हु न ठाइ एसो अम्मापियरेहिं तो सगेहाओ । लिहिऊण राउले अक्खराई नीहारिउं मुक्को ॥१२ तत्तो निरंकुसो भमइ एस भुजंतो अभोजाई । पियमाणो य अपेयाई सेवमाणो अकजाई ॥ १३ ॥ | कालेण य गिद्धो माणुसामिसे भमइ गामनयरेसु । छन्नं च डिंभरूवाई माणुसे हणइ नित्तिसो ॥ १४ ॥ गुणनिष्पन्नं च कयं लोएण महुप्पित्ति से नामं । जेणऽहिलसइ मणुन्नं वत्थं सव्वं पि सव्वरसं ॥१५॥ | अह अन्नया रमतं कस्सइ गामस्स परिसरे डिंभं । अवहरिऊण पलाणो वाहरपुरिसेहिं संपत्तो ॥ १६॥ बंधे नरवइणो समप्पिओ तेण बहुविडंबणया । सुइरं विडंबिऊणं तओ विणासाविओ तत्थ ॥ १७॥ १. भुजियव्वा - जे० J ॥
रसनेन्द्रिय
विपाके
मधुप्रियाख्यानकम्
॥ ३७६ ॥