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भवभावना प्रकरण
जह सागपत्तकयदुन्नएण चत्तो रसो समग्गो वि | तो नाऊण अजोग्गो परिचत्तो जोइएणेसो ॥३२॥ गामाणुगाममह सो भममाणो भिक्खमवि अपावंतो । दारिदृदुक्खिओ दीणमाणसो आगओ गेहे ॥३३ भजाइ पुच्छिओ जा कहेइ सो पुववइयरं सव्वं । तो भणियं तीइ अभग्ग ! ववसिओ कह तुमं एवं?
जइ तुह चेव हियत्थं सिक्खा सा जोइएण तुह दिन्ना ।
तो कह गओ सि को पाविद्य! अयाणुय? कयग्य ! ॥३५॥ किंतु न अट्ठीसु वि तुज्झ लक्खणं अस्थि जेण कइया वि । दारिद्ददुहसएहिं एएहिं खणं पि मुञ्चिहिसि ॥ इय भजाए निन्भत्थिऊण बहुएहिं दुसहवयणेहिं । गेहाओ निच्छूढो सो विप्पो निग्गओ दीणो ॥३७॥ पच्छायावपरद्धो निंदतो अप्पयं भमइ देसे । दारिद्ददुहाभिहओ छुहाए निहणं समणुपत्तो ॥३८॥
॥ इति कौशाम्बीविप्राख्यानकं समाप्तम् ॥
दारिद्रयपीडितकौशाम्बी विप्राख्यानकम्
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तदेवं सर्वप्रकारैस्तारुण्यावस्थायां सुखाभावमुपदर्योपसंहरन् वृद्धावस्था चाभिधातुकाम आह
इय विहवीण दरिदाण वा वि तरुणतणे वि किं सोक्खं ?। दुहकोडिकुलहरं चिय वुड्ढत्तं नूण सव्वेसिं ॥३०॥
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॥ २५८ ॥