________________
पुष्प
भवभावना प्रकरण
परपरिओससुहासाइ देति दुग्वजियं धणं धीरा ।
किं पुण अभयपयाणं तवो वरिटं गरिडं च ॥८५॥ (ग्रं० ९०००) देइ मरंतह कणयकोडि जइ कोइ नरु, अहव इ देइ दयावरु जीविउ तहिं अवरु । तो अवहत्थिय कणयकोडि सुविसत्थमई, सब्बु नाह ! पिअजीविउ जीविउ पर महइ ॥८६॥ जइ इच्छहि आरोग्गसारु जीविउ सुचिरु, जइ इच्छहि पिय ! रायलच्छिविच्छड थिरु। इच्छहि तुलियअणंगु अंगु जइ भुवणवा, ता पिय ! जीवह अभयदाणु दिजउ पवरु ॥८७॥ जइ वणि भमियई भरेसि सभयकयवंचियइं, हरिणजम्मि जइ सरसि सरसकिलिकिंचियइं। ताई नाह ! जइ महुरई मुणिवयणई सरहिं, ता महुमंस
असुइविलीणु मंसु मा आहारहि, दुलहउ मणुयजम्मु मा हारहि । जो नरु सुरमहुमंसु न पासइ, सो पिय ! नरयदुवारु न पासइ ॥८९॥ अह सो अउव्वसंलावजायसंको नरीसरो भणइ । अव्वो! कह णुं अउव्वं सुयणु ! तए नाडयं घडियं? ॥९॥
. चूलायाः
पुष्पचूलं प्रति ,
भक्षण
दोष.. कथनम्
मांस
4. ॥१७॥