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हरिण चरंति वर्णतरिहि, अविहियपरसंताव | 'ताहं वि कह वाहिंति कर, सज्जण सरलसहाव ? ॥७७॥ सच जं जिउ सरसमंसरसगिद्धिपरु, सच्च जं रुचंतर मुच्चड़ तं न सुकरु |
किंतु नाह ! चिंतिज्जउ नरई निरंतई, अइनिरु तिक्खई दुक्खई होंति दुरुत्तरई ॥७८॥ पसु दोरुंडंवि हरिसियर, निसुणिवि साहुकारु । नवि जाणइ नारयदुहहं, दिन्नडं संचक्कारू ॥७९॥ हरियंकुरजलभोयणई, हरिणई हणहिं हयास | अप्पु न चेयहिं नीसुइय, वलिकियविसयपिवास ||८०|
जड़ य जीहले हडिमई धीरिम पम्हुसवि, इय निक्करुणु करंति कम्मु तुम्हारिस वि । सरिस कलिय पसु पुत्त रायरिसित्तण, ता दहि उंडर वुड्डुउ महिपालत्तणउ ॥ ८१ ॥ दीसुं पसारंता, वावाता नियउयरभरणट्ठा | दाणत्ताणसमत्थे हत्थे गरुया वि लहुईति ॥८२॥ फुसि मणूसिमसीह वि, तसु अवहत्थि ववत्थ । पेट्ठाई कम्मट्टियां, घिइ जं बाहइ हत्थ ॥८३॥
हरियंकुरई चरंति सरंति वर्णतरिहिं, अपरिग्गहरं पियंति जलई सरिसरवरिहिं ।
तह वि हरिण कयकरुण अकरुणिहि मारियहिं, गुणहि लोय अविवेय न लयणहं पारियहिं ||८४||
१ ताहवि - मं० २ ॥
१५.
॥ १६९ ॥